संजय लीला भंसाली वर्तमान दौर के उन प्रतिभाशाली निर्देशकों में से एक हैं जिनकी फिल्म को लेकर बेहद उत्सुकता दर्शकों में रहती है। उनकी फिल्मों का आर्टवर्क, भव्यता देखने लायक होती है। भंसाली की ताजा फिल्म 'गंगूबाई काठियावाड़ी' हुसैना ज़ैदी की किताब 'माफिया क्वीन्स ऑफ मुंबई' और गंगा हरजीवनदास के जीवन से प्रेरित है। यह एक ऐसी मासूम लड़की की कहानी है जो मुंबई हीरोइन बनने का सपना लेकर आई थी, लेकिन कमाठीपुर की तंग गलियों में खो जाने के बाद वहां पर वेश्यावृत्ति में लिप्त महिलाओं की आवाज को मुखरता से उठाती है।
संजय लीला भंसाली की फिल्मों में उनका प्रस्तुतिकरण हमेशा शानदार रहता है। सेट बहुत भव्य होते हैं। छोटी-छोटी बातों पर ध्यान दिया जाता है। रंगों के संयोजन से लेकर सिनेमाटोग्राफी तक लाजवाब होती है और यदि कहानी दमदार हो तो फिल्म शानदार हो जाती है। गंगूबाई काठियावाड़ी कहानी के मामले में कमजोर है। फिल्म देखते समय सब कुछ देखा-देखा सा लगता है। एक मासूम लड़की को वेश्यावृत्ति में धकेलने की कहानी कई फिल्मों में आ चुकी है।
गंगा का गंगूबाई बनना अपील नहीं करता। यह सब कुछ फिल्म में इतनी जल्दी दिखा दिया गया है कि समझ ही नहीं आता कि अचानक गंगा इतनी शक्तिशाली कैसे हो गई? माना कि उसे रहीम लाला (अजय देवगन) सहयोग करता है, लेकिन फिल्म में ऐसे दृश्य और होने थे जो गंगूबाई को शक्तिशाली होते हुए दिखाते। गंगूबाई और अफशान (शांतनु माहेश्वरी) की लवस्टोरी फिल्म की लंबाई बढ़ाती है। रजियाबाई (विजय राज) को फिल्म में बहुत शक्तिशाली दिखाया गया है, लेकिन वह प्रभाव स्क्रीन पर उभर कर नहीं आता। कहने का मतलब यह कि गंगूबाई के दर्द से दर्शक कनेक्ट नहीं हो पाते। कहीं कुछ मिसिंग सा लगता है, खासतौर पर स्क्रीनप्ले में। इमोशन उभर कर नहीं आते।
संजय लीला भंसाली ने दृश्यों को महान बनाने पर ज्यादा ध्यान दिया है भले ही वे कहानी से ठीक से कनेक्ट हो पा रहे हों या नहीं। ये दृश्य देखते समय भले ही अच्छे लगते हो, लेकिन बहुत प्रभाव नहीं छोड़ पाते।
सबसे बड़ा सवाल आलिया भट्ट के चयन को लेकर हैं। नि:संदेह आलिया भट्ट ने बेहतरीन एक्टिंग की है। उनके चेहरे के भाव जबरदस्त हैं।वो सीन देखने लायक है जब वे पहली बार सज-संवर कर ग्राहकों को आकर्षित करती हैं। उस सीन में वे आंखों से अपने दर्द को बयां करती हैं। लेकिन गंगूबाई के रूप में आलिया की कम उम्र और चेहरे की मासूमियत आड़े आ जाती है। आलिया को आप गंगूबाई के रूप में स्वीकार लेंगे तभी फिल्म का मजा ले पाएंगे, लेकिन कितने दर्शक ऐसा कर पाएंगे कहा नहीं जा सकता।
इन कुछ बातों को छोड़ दिया जाए तो दूसरे डिपार्टमेंट्स में फिल्म लाजवाब है। सेट बिलकुल रियल लगते हैं। 60 के दशक का दौर बेहद सटीकता के साथ पेश किया गया है। सुदीप चटर्जी ने फिल्मों को बेहतरीन तरीके से शूट किया है। बैकग्राउंड म्यूजिक दृश्यों के असर को गहरा करता है। फिल्म के संवाद दमदार हैं।
निर्देशक के रूप में संजय लीला भंसाली ने दर्शकों को स्क्रीनप्ले की कमियों के बावजूद बांध कर रखा है। कुछ दृश्यों को उन्होंने बहुत ही अच्छे तरीके से पेश किया है। चौदहवीं का चांद फिल्म के पोस्टर के सामने एक पुरुष अपने आपको कोड़े मारने का खेल दिखाता है, इस सीन के जरिये उन्होंने अभिनेता और फिल्मकार गुरुदत्त को आदरांजलि दी है क्योंकि 'चौदहवीं का चांद' गुरुदत्त ने बनाई थी और गुरुदत्त ने सांप के साथ डांस वाला कुछ इसी तरह का खेल, पहली बार सीखा था। 'कोठेवाली' पर फिल्म आधारित होने के बावजूद भंसाली ने फिल्म को बेवजह की 'गंदगी' से बचाकर 'ह्यूमन ड्रामा' के रूप में पेश किया है। एक गाने को सिंगल टेक में दिखाने का प्रयोग बेहतरीन है।
गाने फिल्म की थीम के अनुरूप है। हालांकि कव्वाली की कोई जरूरत नहीं थी। 'ढोलीडा' गाने भंसाली को टाइप्ड करते हैं। गानों की कोरियोग्राफी उम्दा है।
आलिया के अभिनय का जिक्र तो पहले ही किया जा चुका है। सपोर्टिंग कास्ट का काम भी शानदार है। कोठे की मौसी के रूप में सीमा पाहवा डराती हैं। रजिया बाई के रूप में विजय राज चौंकाते हैं, हालांकि उन्हें और फुटेज मिलना थे। शांतनु माहेश्वरी अपनी मासूमियत से प्रभावित करते हैं। तीन-चार सीन में आकर ही अजय देवगन अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराते हैं।
गंगूबाई काठियावाड़ी भंसाली को एक फिल्ममेकर के रूप में आगे नहीं ले जाती है। ऐसी फिल्म वे कभी भी आसानी से बना सकते हैं।
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निर्माता : जयंतीलाल गढ़ा, संजय लीला भंसाली
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निर्देशक व संगीत : संजय लीला भंसाली
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कलाकार : आलिया भट्ट, शांतनु माहश्वरी, विजय राज, सीमा पाहवा, जिम सरम, इंदिरा तिवारी, अजय देवगन (कैमियो)
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सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 37 मिनट
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रेटिंग : 3/5