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हिंदी मीडियम : फिल्म समीक्षा

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समय ताम्रकर

भारत में अंग्रेजी और अंग्रेजी माध्यम के प्रति अंधे रुझान को फिल्म 'हिंदी मीडियम' में दर्शाया गया है। इस देश में टूटी-फूटी हिंदी बोलना शान की बात मानी जाती है और कोई गलत अंग्रेजी बोला तो उसकी बौद्धिक क्षमता पर सवाल उठा दिए जाते हैं। सरकारी स्कूल में हिंदी माध्यम में पढ़े-लिखे माता-पिता भी पूरी कोशिश करते हैं कि उनकी संतान महंगे स्कूल और अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाई करे। कई माता-पिताओं का सीना तो उस समय गर्व से चौड़ा हो जाता है जब उनकी संतान मेहमानों के सामने अंग्रेजी में कविता सुना देती है। 
 
दिल्ली में रहने वाले एक अच्छे खाते-पीते परिवार की कहानी के जरिये लेखक और निर्देशक साकेत चौधरी ने दिखाया है कि 'अंग्रेजी' बोलने वालों को 'क्लासी' माना जाता है और हिंदी बोलने वालों को दोयम दर्जा दिया जाता है। मीता (सबा कमर) और उसका पति राज बत्रा (इरफान खान) दिल्ली में चांदनी चौक में रहते हैं। राज की कपड़ों की बड़ी दुकान है। बीएमडब्ल्यू में घूमता है। सब कुछ होने के बावजूद मीता इसलिए परेशान रहती है कि उसके पति की अंग्रेजी अच्छी नहीं है। इस कारण वो 'क्लास' लोगों में उठने-बैठने में असहज महसूस करती है। 
 
राज और मीता की बेटी पिया अब स्कूल जाने लायक हो गई है। मीता चाहती है कि उसकी बेटी दिल्ली के टॉप पांच स्कूल में से किसी एक में दाखिला ले। स्कूल में इंटरव्यू के पहले पिया के साथ-साथ राज और मीता की भी ट्रेनिंग होती है क्योंकि माता-पिता से भी सवाल पूछे जाते हैं। चार स्कूलों में पिया का एडमिशन नहीं हो पाता। आखिर में एक स्कूल बचता है, जहां एडमिशन फॉर्म के लिए ही रात में लोग लाइन में लग जाते हैं। इस स्कूल में सिफारिश भी नहीं चलती। 
 
राज को पता चलता है कि राइट टू एज्युकेशन के तहत गरीब बच्चों के लिए कुछ सीटें आरक्षित है। वह गरीब होने के कागजात जुटा लेता है। जब पता चलता है कि स्कूल वाले घर देखने आएंगे तो वह अपनी पत्नी और बेटी के साथ एक गरीब बस्ती में शिफ्ट हो जाता है। इसके बाद कई हास्यास्पद परिस्थितियां जन्म लेती हैं। अमीर-गरीब लोगों के व्यवहार में अंतर को वह और उसकी पत्नी करीब से महसूस करते हैं। 
 
फिल्म इस बात को बारीकी से उठाती है कि अंग्रेजी माध्यम और महंगे स्कूलों की होड़ में माता-पिता बिना सोचे-समझे शामिल हो जाते हैं, मानो इन स्कूलों में दाखिला होते ही उनके बच्चे बड़े आदमी बन जाएंगे। वे इसके लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। यह स्टेटस सिंबल का भी प्रतीक होता है। साथ ही अंग्रेजी न आने पर हीन भावना से ग्रसित होने की मनोदशा को भी  फिल्म में व्यंग्यात्मक तरीके से दर्शाया गया है। 
 
स्क्रिप्ट में इस बात का ध्यान रखा गया है कि संदेश के साथ-साथ मनोरंजन भी हो। पहले हाफ में कई मनोरंजक दृश्य फिल्म में नजर आते हैं। संवाद भी गुदगुदाते हैं। दूसरे हाफ में फिल्म थोड़ा गंभीर होती है क्योंकि यह विषय की मांग भी थी। क्लाइमैक्स ठीक है और इससे बेहतर कुछ हो भी नहीं सकता था। 
 
अंग्रेजी और अंग्रेजी माध्यम के प्रति पैरेंट्स के मोह को दिखाया गया है, शिक्षण व्यवस्था के व्यावसायिक होने पर भी फिल्म  सवाल उठाती है, लेकिन ये सारी बातें सभी जानते हैं। न चाहते हुए भी लोगों की अंग्रेजी सीखना और अंग्रेजी माध्यम में पढ़ना  मजबूरी है क्योंकि अधिकांश अच्छी नौकरियां आपके अंग्रेजी ज्ञान के आधार पर ही मिलती है। अच्छा होता यदि फिल्म इस बात को भी दिखाती कि क्यों अंग्रेजी को भारत में इतना महत्व दिया जाता है? क्यों अंग्रेजी बोलने वाले को ज्यादा विद्वान माना जाता है? 
 
साकेत चौधरी का निर्देशन अच्छा है। उन्होंने कलाकारों से बेहतरीन अभिनय करवाया है और अपने प्रस्तुतिकरण के जरिये अच्छा माहौल बनाया है। फिल्म को मनोरंजक बनाते हुए उपदेशात्मक होने से बचाया है। अच्छा होता यदि फिल्म के अंत में दिखाए गए टाइटल हिंदी में होते।  
 
फिल्म बेहतरीन कलाकारों से सजी हुई है। इरफान खान कितने बेहतरीन अभिनेता हैं यह बताने की जरूरत नहीं है। उन्होंने अपने अभिनय से दर्शकों को हंसाया है। पति पर प्रभुत्व जमाने वाली और अपनी बेटी को किसी अच्छे स्कूल में दाखिला दिलाने वाली मां के रूप में सबा कमर का अभिनय कहीं भी इरफान से कम नहीं है। अपनी बॉडी लैंग्वेज का उन्होंने खूब उपयोग किया है। गरीब आदमी कैसा होता है यह बताने में दीपक डोब्रियाल ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। इंटरवल के बाद वे आते हैं और छा जाते हैं। अमृता सिंह का रोल ठीक से लिखा नहीं गया है। संजय सूरी, नेहा धूपिया, राजेश शर्मा छोटे-छोटे रोल में प्रभावित करते हैं। 
 
अमितोष नागपाल के संवाद बेहतरीन हैं। 'ये ताजा-ताजा गरीब बना है', 'हम तो खानदानी गरीब हैं', जैसे कई संवाद दाद देने लायक हैं। 
 
'हिंदी मीडियम' अंग्रेजी बोलने वालों और न बोलने वाले के बीच के अंतर और शिक्षा व्यवस्था पर सवाल खड़े करती है। अच्छा होता यदि विषय की और गहराई में जाया जाता। बावजूद इसके यह फिल्म एक बार देखने लायक है । 
 
बैनर : टी-सीरिज़ सुपर कैसेट्स इंडस्ट्री लि., मैडॉक फिल्म्स 
निर्माता : भूषण कुमार, दिनेश विजन, कृष्ण कुमार 
निर्देशक : साकेत चौधरी 
संगीत : सचिन जिगर 
कलाकार : इरफान, सबा कमर, दीपक डोब्रियाल, अमृता सिंह, संजय सूरी, नेहा धूपिया, दीक्षिता सहगल 
सेंसर सर्टिफिकेट : यू * 2 घंटे 13 मिनट 26 सेकंड 
रेटिंग : 3/5 
 

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