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जय गंगाजल : फिल्म समीक्षा

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हमें फॉलो करें जय गंगाजल

समय ताम्रकर

प्रकाश झा उन फिल्म निर्देशकों में से हैं जिनका सिनेमा मुद्दा आधारित होता है। पुलिस बनाम भ्रष्ट सिस्टम को लेकर उन्होंने 'गंगाजल' फिल्म बनाई थी। एक बार फिर वे उसी ओर मुड़े हैं और नाम भी मिलता-जुलता 'जय गंगाजल' रखा है। 
 
इस बार महिला पुलिस ऑफिसर को केन्द्र में रखकर कहानी बुनी गई है। प्रियंका चोपड़ा को कुछ दिनों की शूटिंग के लिए राजी कर लिया और उनके नाम का फायदा लेने की कोशिश की गई है क्योंकि प्रियंका के रोल से बड़ा रोल तो खुद प्रकाश झा का है जिन्होंने इस फिल्म से अभिनय की दुनिया में भी कदम रखा है। प्रियंका का रोल फिल्म में फैलाकर लंबा दिखाने की कोशिश की गई है, लेकिन हकीकत तो यह है कि प्रियंका की बीच-बीच में कमी महसूस होती है। 
 
'जय गंगाजल' की कहानी में तीन धाराएं हैं। एक पुलिस को लेकर है जिसमें पुलिस के दोहरे चेहरे दिखाए गए हैं। एक ओर ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ पुलिस ऑफिसर आभा माथुर (प्रियंका चोपड़ा) है तो दूसरी ओर बीएन सिंह (प्रकाश झा) जैसा ऑफिसर भी है जो भ्रष्ट नेता के लिए पुलिस की नौकरी करता है। 
 
दूसरा ट्रेक पुलिस और राजनेताओं के रिश्ते पर आधारित है। कहानी मध्य भारत के एक छोटे जिले बांकीपुर की है। इस छोटे शहर में गुंडा ही विधायक बन गया है और अपना उल्लू सीधा करने के लिए उसने सरकारी कर्मचारियों को अपनी जेब में रखा हुआ है। इस तरह के नेताओं निपटना आसान बात नहीं है और लड़ने-भिड़ने के लिए कलेजा चाहिए जो आभा माथुर के पास है। 
तीसरी बात किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं को लेकर की गई है। प्लांट के नाम पर उनसे जमीन ली जा रही है या दूसरे शब्दों में कहे तो छिनी जा रही है, जिसकी वजह से वे जमीन को बचाने के लिए कर्ज में डूब रहे हैं। 
 
पहला ट्रेक अच्छा है जो दिखाता है कि पुलिस को कितनी कठिनाइयों से जूझना पड़ता है और यदि ईमानदार पुलिस ऑफिसर थोड़ा दबंग हो तो क्या नहीं कर सकता है। दूसरा ट्रेक चिर-परिचित है। इस ‍पर बॉलीवुड में ढेर सारी फिल्म बन चुकी हैं और यह इतना लुभा नहीं पाता। तीसरा ट्रेक अत्यंत ही कमजोर है जिसमें किसानों की आत्महत्या वाला मुद्दा बेहद सतही है। 
 
फिल्म को प्रकाश झा ने लिखा भी है। ड्रामे को मनोरंजक बनाने की उन्होंने भरसक कोशिश की है। पहले हाफ में चिर-परिचित कहानी होने के बावजूद फिल्म अच्‍छी लगती है, लेकिन दूसरे हाफ में स्क्रिप्ट की कमियां उभर कर सामने आती हैं और फिल्म बिखर जाती है। 
 
क्षेत्र की जनता बड़ा अजीब व्यवहार करती है। कभी तो वह बेहद डरपोक लगती है तो कभी इतनी विद्रोही कि अपराधियों को पेड़ से टांगकर फांसी लगाने की मांग करती है। कही-कही फिल्म बेहद रूटीन हो जाती है। कुछ संवाद जरूर अच्छे सुनने को मिलते हैं जैसे, कीचड़ को साफ पानी से ही धोया जा सकता है गंदे पानी से नहीं। 
 
निर्देशक के रूप में प्रकाश झा ने फिल्म को कुछ ज्यादा ही लंबा बना दिया है। प्रसंगों को खींचा गया है। एडीटर को यदि वे छूट देते तो फिल्म आधे घंटे छोटी की जा सकती थी। झा के काम में जल्दबाजी नजर आती है और कई जगह उन्होंने छोटी-मोटी बातों पर ध्यान नहीं दिया। ‍उन्हें अपने प्रस्तुतिकरण पर भी थोड़ा ध्यान देना चाहिए। उनकी इस बात के लिए तारीफ की जा सकती है कि दर्शकों की रूचि जरूर वे फिल्म में बनाए रखते हैं। हकीकत में जो संभव नहीं है उसे परदे पर ही देख दर्शक खुश हो जाते हैं।  
 
एक ईमानदार पुलिस ऑफिसर की भूमिका में प्रियंका जमी हैं। उनका आत्मविश्वास और आक्रामकता नजर आती है। एक्शन सीन रूटीन है फिर भी वे एक्शन दृश्यों में अच्‍छी लगी हैं। प्रकाश झा का अभिनय देख लगता ही नहीं कि वे पहली बार कैमरे के सामने आए हैं। फिल्म में उनका रोल सबसे लंबा और उतार-चढ़ाव लिए हुए है। मानव कौल, मुरली शर्मा, राहुल भट सहित तमाम कलाकारों ने अपना-अपना काम अच्छे से निभाया है। तकनीकी रूप से फिल्म थोड़ी कमजोर है। 
 
'जय गंगाजल' जैसी फिल्म बनाना प्रकाश झा के लिए बेहद आसान है, जरूरत है कि वे कुछ नया और बेहतर करें क्योंकि तभी वे अपनी प्रतिभा के साथ न्याय कर पाएंगे। 
 
बैनर : प्रकाश झा प्रोडक्शन्स, प्ले एंटरटेनमेंट 
निर्माता-निर्देशक : प्रकाश झा 
संगीत: सलीम-सुलेमान 
कलाकार : प्रियंका चोपड़ा, प्रकाश झा, मानव कौल, राहुल भट, मुरली शर्मा
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 38 मिनट 40 सेकंड्स 
रेटिंग : 2.5/5 

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