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खामोशियां : फिल्म समीक्षा

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समय ताम्रकर

आशिकी 2 और सिटीलाइट्स के बाद भट्ट बंधु (मुकेश और महेश) एक बार फिर अपने चिर-परिचित फॉर्मूले की ओर लौटे हैं। मधुर संगीत, हॉरर, अपराध और सेक्स का तड़का लगाकर उन्होंने कई फिल्में बनाई हैं जिनमें से अधिकांश सफल भी रही है। 'खामोशियां' भी उसी तर्ज पर आधारित फिल्म है, लेकिन हैरानी वाली बात यह है कि अपनी जानी-पहचानी पिच पर भी भट्ट की टीम असफल हो गई और नतीजे में 'खामोशियां' जैसी कमजोर फिल्म सामने आती है। 
 
'खामोशियां' को विक्रम भट्ट ने लिखा  है। विक्रम चाहे लिखे या निर्देशन करें, उनकी फिल्में एक जैसी होती हैं। नया सोचना उनके बस की बात नहीं है। लगातार वे अपने आपको दोहराए जा रहे हैं। उनका फॉर्मूला तार-तार हो चुका है। दर्शक थक चुके हैं, लेकिन विक्रम अभी भी उसी पर डटे हुए हैं। 'खामोशियां' की कहानी में नवीनता तो है ही नहीं, साथ ही यह बेहद कमजोर है। 
कबीर (अली फजल) एक लेखक है। उसके अंदर अधूरापन है। तनहा है। उपन्यास लिखने की प्रेरणा पाने के लिए वे एक यात्रा पर निकलता है और एक गेस्ट हाउस में रूकता है। इस गेस्ट हाउस को मीरा (सपना पब्बी) चलाती है। मीरा का पति (गुरमीत चौधरी) बीमार है और बिस्तर से उठ नहीं सकता है। मीरा और कबीर एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं। कबीर के साथ गेस्ट हाउस में डरावनी घटनाएं घटती हैं और उसे महसूस होता है कि मीरा इस बारे में सब जानती है। राज जानने की कोशिश में कबीर फंस जाता है। 
 
कहानी में हॉरर, रहस्य, रोमांच और रोमांस जैसे तत्व हैं, लेकिन इनका इस्तेमाल सही तरीके से नहीं हो पाया है। कहानी माहौल में ठीक से फिट नहीं हो पाई है। गेस्ट हाउस में कबीर के अलावा कोई और गेस्ट नहीं है। यहां तक भी बात ठीक है, लेकिन इतने बड़े गेस्ट हाउस में स्टॉफ नजर नहीं आता, फिर भी गेस्ट हाउस साफ-सुथरा नजर आता है। हर चीज करीने से रखी हुई दिखाई है। मीरा को स्विमिंग पुल साफ करते, किताबें जमाते हुए कुछ शॉट्स में दिखाया गया है, लेकिन इतने बड़े गेस्ट हाउस का सारा काम करना उसके बस की बात नहीं है। यह बात पूरी फिल्म में खटकती रहती है।
 
मीरा का किरदार ठीक से नहीं लिखा गया है। बिना सोचे-समझे वह किसी से शादी करने तक का फैसला ले लेती है। कबीर और मीरा का रोमांटिक ट्रेक भी दमदार नहीं है। हॉरर के नाम कर कुछ डरावने सीन है जो ठीक-ठाक हैं। 
 
 
फिल्म में एक लाश दिखाई गई है जो दो साल से जड़ी-बूटी के सहारे रखी गई है ताकि सड़े-गले नहीं। अब ऐसी कौन सी जड़ी-बूटी आती है, इस बात को भी छोड़ दिया जाए, लेकिन लाश ऐसी लगती है मानो वह शख्स दो साल से बिना नागा किए जिम जा रहा हो। एकदम फिट बॉडी। ऐसी कुछ और बड़ी खामियां फिल्म में हैं। क्लाइमैक्स तो फिल्म का सबसे कमजोर हिस्सा है। किसी तरह फिल्म को खत्म किया गया है। 
 
निर्देशक अभिषेक डर्रा का प्रस्तुतिकरण वैसा ही जैसा भट्ट बंधुओं की फिल्मों का होता है। फिल्म पर वे पूरी तरह पकड़ कभी नहीं बना पाए। सिनेमाटोग्राफी और संगीत ही फिल्म के प्लस पाइंट्स हैं। 
 
अली फजल फिल्म दर फिल्म बेहतर हो रहे हैं, हालांकि उन्हें मंझने में थोड़ा समय और लगेगा। सपना पब्बी की यह पहली फिल्म है और उनमें संभावना नजर आती है। गुरमीत चौधरी का रोल बहुत छोटा था और उन्हें ज्यादा फुटेज दिया जाना था। 
 
'खामोशियां' नहीं भी देखी तो कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। 
 
बैनर : विशेष फिल्म्स, फॉक्स स्टार स्टुडियो
निर्देशक : करण डर्रा
संगीत : जीत गांगुली, अंकित तिवारी, नावेद जफर, बॉबी-इमरान
कलाकार : अली फजल, सपना पब्बी, गुरमीत चौधरी
सेंसर सर्टिफिकेट : केवल वयस्कों के लिए * 2 घंटे 2 मिनट
रेटिंग : 1/5

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