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लाल रंग : फिल्म समीक्षा

हमें फॉलो करें लाल रंग : फिल्म समीक्षा

समय ताम्रकर

जरूरी नहीं है कि अच्छा आइडिया हो तो फिल्म भी अच्छी ही बने। 'लाल रंग' के साथ यही हुआ है। सैयद अहमद अफज़ल ने एक अच्छे उद्देश्य के साथ 'लाल रंग' बनाई है, लेकिन वे बात को सही तरीके से नहीं रख पाए। 
 
यहां लाल रंग का मतलब खून से है। खून किसी की जिंदगी बचा सकता है, लेकिन कुछ लोग इसे व्यापार बना लेते हैं। वे रक्त दान करने के बजाय रक्त ऊंचे दामों में अवैध तरीके से बेचते हैं। इन रक्त माफियाओं के काम करने के तरीके के इर्दगिर्द घूमती है 'लाल रंग'। 
विषय अलग है, लेकिन कहीं यह डॉक्यूमेंट्री न बन जाए, इसलिए निर्देशक और लेखक ने इसमें मनोरंजन के तत्व डाले हैं और यही पर सारी चूक हो गई है। जो ड्रामा दिखाया गया है वह बेहद उबाऊ और लंबा है। स्क्रीन की बजाय आप अपनी घड़ी देखने लग जाएं तो ये किसी भी फिल्म के लिए अच्छा लक्षण नहीं है। 
 
हरियाणा के करनाल में रहने वाले राजेश धीमान मेडिकल लेबोरेटरी साइंस में डिप्लोमा के लिए कॉलेज में एडमिशन लेता है। वहां वह पूनम को दिल दे बैठता है और शंकर से उसकी दोस्ती हो जाती है। शंकर दादा टाइप इंसान है जो खून का अवैध कारोबार करता है। 
 
शंकर की स्टाइल से प्रभावित होकर राजेश भी उसके इस धंधे में शामिल हो जाता है। पैसे को लेकर राजेश और शंकर के संबंधों में दरार आ जाती है। एसपी गजराज सिंह इस घटिया कारोबार को बंद करना चाहता है। इन्हीं बातों के आसपास से गुजरती फिल्म खत्म होती है। 
 
मनोरंजक बनाने के चक्कर में फिल्म अपने मूल उद्देश्य से भटकती है। फिल्म में दिखाया गया है कि किस तरह गरीबों से पैसों के बदले में खून का व्यापार किया जाता है। कैसे अस्पताल वाले पुराने खून को नया खून बताकर मरीज को चढ़ा देते हैं। रक्तदान शिविरों में से किस तरह खून को चुरा‍ लिया जाता है। लेकिन बीच-बीच में राजेश-पूनम तथा शंकर की लव स्टोरी भी आपको झेलना पड़ती है। शंकर और राजेश के बीच भी कई दृश्य है जो आपके सब्र की परीक्षा लेते है। फिल्म बेहद सुस्त गति से चलती है और अधिकांश जगह ठहरी हुई लगती है। 
 
सैयद अहमद अफज़ल का निर्देशन कमजोर है। फिल्म कई जगह ऐसी लगती है मानो नाटक देख रहे हो। अपनी बात कहने में उन्होंने बहुत सारा वक्त लिया है। फिल्म को न तो वे मनोरंजक बना पाए और न ही इस गंभीर मुद्दे को बेहतर तरीके से उठा पाए। फिल्म के संवादों में हरियाणवी टच दिया गया है जिससे कई संवाद हिंदी भाषी दर्शकों को समझने में कठिनाई आ सकती है। 
 
फिल्म के कलाकारों का अभिनय अच्छा है। रणदीप हुडा ने अपने कैरेक्टर को एक खास स्टाइल देते हुए बेहतरीन अभिनय किया है। अक्षय ओबेरॉय ने एक सीधे-सादे युवा की भूमिका बखूबी निभाई है। सहरानपुर गर्ल के रूप में पिया बाजपेई का अभिनय भी अच्‍छा है। मीनाक्षी दीक्षित और रजनीश दुग्गल के पास करने को कुछ ज्यादा नहीं था। 
 
फिल्म का बैकग्राउंड म्युजिक निराशाजनक है और संपादन ढीला है।  
 
कुल मिलाकर 'लाल रंग' रंगहीन है। 
 
बैनर : क्रिअन पिक्चर्स
निर्माता : नितिका ठाकुर
निर्देशक : सैयद अहमद अफज़ल
संगीत : विपिन पटवा, शिराज़ उप्पल
कलाकार : रणदीप हुडा, अक्षय ओबेरॉय, रजनीश दुग्गल, पिया बाजपेई, मीनाक्षी दीक्षित
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 20 मिनट
रेटिंग : 1/5 

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