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मदारी : फिल्म समीक्षा

हमें फॉलो करें मदारी : फिल्म समीक्षा

समय ताम्रकर

सिस्टम में फैले भ्रष्टाचार पर प्रहार करती अनेक फिल्में बॉलीवुड में बनी हैं और इस लिस्ट में 'मदारी' का नाम भी जुड़ गया है। भ्रष्टाचार के कारण एक पुल ढह गया जिसमें कई लोगों के साथ एक सात वर्षीय बालक भी मारा गया। इस बालक के पिता निर्मल कुमार (इरफान खान) की तो मानो जिंदगी ही खत्म हो गई। गृहमंत्री के आठ वर्षीय बेटे का अपहरण वह इसलिए कर लेता है ताकि उसे अहसास हो कि बेटे पर जब कोई मुसीबत आती है तो कैसा महसूस होता है। साथ ही वह इंजीनियर, डिजाइनर, ठेकेदार, नेताओं की पोल खोलना चाहता है।
 
फिल्म को शैलजा केजरीवाल और रितेश शाह ने लिखा है और निशिकांत कामत ने निर्देशित किया है। हिंदी में निशिकांत फोर्स, दृश्यम, मुंबई मेरी जान और रॉकी हैंडसम जैसी फिल्में बना चुके हैं। 'मदारी' के लेखकों ने भ्रष्टाचार विषय तो तय कर लिया, लेकिन जिस तरह से उन्होंने इस विषय के इर्दगिर्द कहानी की बुनावट की है वो प्रभावित नहीं करती। 
फिल्म की शुरुआत में ही गृह मंत्री के बेटे का निर्मल अपहरण कर लेता है। इंटरवल और उसके बाद भी वह उस लड़के को लेकर अलग-अलग शहरों में घूमता रहता है। यहां चोर-पुलिस के खेल पर फोकस किया गया है, लेकिन यह रोमांचविहीन है। कभी भी लगता ही नहीं कि ऑफिसर नचिकेत वर्मा (जिम्मी शेरगिल)  निर्मल को पकड़ने के लिए कुछ ठोस योजना बना रहा है। दूसरी ओर निर्मल बहुत ही आसानी के साथ बालक को लेकर घूमता रहता है। आठ साल का बालक बहुत ही स्मार्ट दिखाया गया है, वह स्टॉकहोम सिंड्रोम की बातें करता है, लेकिन कभी भी भागने की कोशिश नहीं करता। 
 
फिल्म के सत्तर प्रतिशत हिस्से में बस यही दिखाया गया है कि निर्मल अपहृत बालक के साथ यहां से वहां भटक रहा है। वह ऐसा क्यों कर रहा है, ये बताने की जहमत निर्देशक ने नहीं उठाई। सिर्फ उसका बेटा खोया है, इतना ही बताया गया है। राज पर से परदा उठने का इंतजार करते-करते दर्शक उब जाता है। फिल्म उसके धैर्य की परीक्षा लेने लगती है। अंतिम बीस मिनटों में ही फिल्म में तेजी से घटनाक्रम घटते हैं और यहां तक पहुंचने का जो सफर है वो काफी कष्टप्रद है। 
 
निर्देशक के रूप में निशिकांत कामत निराश करते हैं। उनका कहानी को कहने का तरीका कन्फ्यूजन को बढ़ाता है। क्लाइमैक्स में निशिकांत ने कुछ ज्यादा ही छूट ले ली है। अचानक एक आम आदमी हीरो की तरह कारनामे करता है। 'सरकार भ्रष्ट नहीं है, भ्रष्टाचार के लिए सरकार है' जैसे कुछ संवाद यहां सुनने को मिलते हैं। हालांकि इन बातों में कुछ नयापन नहीं है और कई बार इस तरह की भ्रष्टाचार विरोधी बातें हम देख/सुन चुके हैं। 
 
दुर्घटनाओं में कई लोग लापरवाही और भ्रष्टाचार के कारण मारे जाते हैं। चूंकि इन आम लोगों के पास लड़ने के लिए न पैसा होता है न पॉवर इसलिए ये जिम्मेदार लोग बच निकलते हैं। फिल्म के जरिये ये बात उठाने की कोशिश की गई है, लेकिन ये दर्शकों के मन पर स्क्रिप्ट की कमियों के चलते असर नहीं छोड़ती। फिल्म के क्लाइमैक्स में ये सारी बातें की गई हैं तब तक दर्शक फिल्म में रूचि खो बैठते हैं। 
 
अविनाश अरुण की सिनेमाटोग्राफी दोयम दर्जे की है। कैमरे को उन्होंने खूब हिलाया है जिससे आंखों में दर्द होने लगता है। आरिफ शेख का सम्पादन भी स्तर से नीचे है। स्टॉक इमेजेस की क्वालिटी बेहद खराब है। 
 
एक हद तक अपने अभिनय के बल पर इरफान खान फिल्म को थामे रहते हैं, लेकिन वे अकेले भी कब तक भार उठाते। स्क्रिप्ट की कोई मदद उन्हें नहीं मिली। उनकी एक्टिंग का नमूना अस्पताल के एक शॉट में देखने लायक है जब उनका बेटा मर जाता है और वे रोते हैं। अन्य कलाकारों में जिम्मी शेरगिल और बाल कलाकार विशेष बंसल प्रभावित करते हैं।  
 
कुल मिलाकर 'मदारी' का यह खेल न मनोरंजक है और न ही यह भ्रष्टाचार विरोधी मुद्दे को ठीक से उठा पाई।
 
बैनर : परमहंस क्रिएशन, डोरे फिल्म्स, सप्तर्षि सिनेविज़न
निर्माता : शैलेष आर सिंह, सुतापा सिकदर, शैलजा केजरीवाल 
निर्देशक : निशिकांत कामत
संगीत : विशाल भारद्वाज
कलाकार : इरफान खान, जिम्मी शेरगिल, तुषार दलवी, विशेष बंसल 
* दो घंटे 13 मिनट 42 सेकंड
रेटिंग : 1.5/5 


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