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पीकू : फिल्म समीक्षा

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समय ताम्रकर

पिता-पुत्र के रिश्ते पर कई फिल्में बनी हैं, लेकिन पिता-पुत्री के रिश्ते पर कम ही फिल्म देखने को मिली है। इस रिश्ते को लेकर शुजीत सरकार ने 'पीकू' नामक अनोखी फिल्म बनाई है। विकी डोनर, मद्रास कैफे के बाद तीसरी बेहतरीन फिल्म शुजीत ने दी है और साबित किया है कि इस माध्यम पर उनकी तगड़ी पकड़ है। 
 
दिल्ली में रहने वाली पीकू (दीपिका पादुकोण) एक वर्किंग वुमैन है। मां इस दुनिया में नहीं है। घर पर वह अपने सत्तर वर्षीय पिता भास्कर बैनर्जी (अमिताभ बच्चन) की देखभाल करती है। इस उम्र में बीमारी को लेकर फोबिया रहता है और भले-चंगे भास्कर को आश्चर्य होता है जब रिपोर्ट में उन्हें स्वस्थ बताया जाता है। कब्ज की बीमारी से वे पीड़ित हैं और हर बात को वे मोशन से जोड़ देते हैं। होम्योपैथी से लेकर घरेलू नुस्खे तक आजमाए जाते हैं। नियमित अंतराल से ब्लड प्रेशर और बुखार नापते रहते हैं और एक अच्छे मोशन को लेकर दिन-रात चिंता सताती रहती है।
 
पीकू की उम्र 30 के आसपास है, लेकिन पिता के लिए उसने अपने आपको भूला दिया है। भास्कर बैनर्जी कई बार उसके साथ स्वार्थ से भरा व्यवहार करते हैं। उन्हें डर सताता रहता है कि बेटी ने शादी कर ली तो उनका खयाल कौन रखेगा। जहां उन्हें लगा कि कोई लड़का पीकू में रूचि ले रहा है तो वे अपनी बेटी के सामने ही उसे कह देते हैं कि पीकू वर्जिन नहीं है। इतना खुला और मिठास से भरा रिश्ता है पिता-पुत्री के बीच। इसमें बेवजह की भावुकता नहीं है। 
 
पूरी फिल्म में पीकू और उसके पिता भास्कर बैनर्जी बहस करते रहते हैं। एक-दूसरे की जरा नहीं सुनते, लेकिन इस बहस से ही उनका प्यार टपकता है। कहा भी जाता है कि जिससे ज्यादा प्यार रहता है उसी से छोटी-छोटी बातों पर तकरार होती रही है। इस बात को दर्शाना आसान नहीं है, लेकिन फिल्म की लेखक जूही चतुर्वेदी और निर्देशक शुजीत ने जटिल काम इतने उम्दा तरीके से पेश किया है कि आप लगातार हंसते रहते हैं और दोनों के मजबूत रिश्ते की दाद देते हैं। 
भास्कर बैनर्जी की अपनी फिलॉसॉफी है जो सोचने पर मजबूर करती है। उनका मानना है कि लड़की का जब तक कोई उद्देश्य न हो उसे शादी नहीं करना चाहिए। यदि सिर्फ पति की सेवा करना और रात को सेक्स करना हो तो इसके लिए शादी करने की जरूरत नहीं है। बेहतर है कि पति के बजाय माता-पिता की सेवा की जाए। बुढ़ापे में वैसे भी अपने पैरेंट्स को देखभाल की जरूरत पड़ती है। पीकू अपने पिता से शिकायत किए बिना उनकी देखभाल करती है और वह भी पिता की तरह नकचढ़ी हो गई है ताकि लड़के उससे दूर रहे। 
 
भास्कर बैनर्जी दिल्ली से कोलकाता जाते हैं और यह सफर रोड द्वारा तय करते हैं। पीकू के व्यवहार से टैक्सी चलाने वाले ड्रावयर चिढ़े हुए हैं और टैक्सी सर्विस का मालिक राणा चौधरी (इरफान खान) खुद ड्राइव करता है। इस लंबे सफर में कई मजेदार घटनाएं घटती हैं जो देखने लायक हैं। 
 
पिता-पुत्री का रिश्ता, महिलाओं की स्वतंत्रता व आत्मनिर्भरता और पैरेंट्स की देखभाल संबंधी मुद्दे 'पीकू' में उठाए गए हैं, लेकिन यह भारी-भरकम इमोशन से भरी फिल्म नहीं है। फिल्म हल्की-फुल्की है और परतों में ये बात छिपी हुई हैं जिन्हें इशारों में निर्देशक और लेखक ने दर्शाया है। 
 
बंगाली परिवार की पृष्ठभूमि देकर फिल्म को मनोरंजक बनाया गया है। पीकू के घर पर स्वामी विवेकानंद के साथ सत्यजीत रे की तस्वीर भी लगी हुई है जो दिखाती है कि रे के प्रति बंगालियों में कितना आदर है। एक अदद नौकर हमेशा उनके साथ होता है। उन्हें अपनी बुद्धि पर गर्व है। जब गैर बंगाली राणा चौधरी होशियारी वाली बात करता है तो उसे एक बंगाली टोकता है कि क्या आपको यकीन है कि आप बंगाली नहीं हैं?
 
मोशन को लेकर गजब का ह्यूमर रचा गया है। वैसे भी सुबह-सुबह एक बेहतरीन मोशन होना दुनिया के बड़े सुखों में से एक है। भास्कर बैनर्जी अपनी पोटी को लेकर चिंतित रहते हैं और सेमी सॉलिड या मैंगो पल्प से लेकर उसके रंग तक की चर्चा डाइनिंग टेबल पर करते हैं। वह दिल्ली से कोलकाता के सफर में एक पॉटी करने वाली कुर्सी लेकर साथ चलते हैं और ढाबों में कुर्सी का उपयोग किया जाता है। वेस्टर्न या इंडियन टॉयलेट में कौन-सी बेहतर है इसको लेकर इरफान जो तर्क देते हैं उसे सुन आप हंस बिना नहीं रह सकते हैं। 
 
लेखक जूही चतुर्वेदी का काम तारीफ के काबिल है। एक बेहतरीन फिल्म उन्होंने लिखी है। फिल्म के किरदारों के बीच जो वार्तालाप है वो बेहद मनोरंजक है। भास्कर बैनर्जी और उनके परिवार की जिंदगी का एक हिस्सा दर्शकों के सामने रखा है जो गुदगुदाता है।
 
शुजीत सरकार ने कलाकारों से अच्छा काम करवाया है और फिल्म को वास्तविकता के करीब रखा है। हर किरदार को उन्होंने बारीकी से उभारा है। चूंकि कहानी किरदारों की जिंदगी का कुछ हिस्सा है और इसमें लंबी-चौड़ी कहानी नहीं है, ऐसे में निर्देशक का काम अहम हो जाता है और यह जिम्मेदारी उन्होंने कुशलता से निभाई है। अलग-अलग जॉनर की फिल्में बना कर शुजीत ने दिखा दिया है कि वे आलराउंडर निर्देशक हैं और किसी एक जॉनर में बंधे रहना उन्हें पसंद नहीं है। 

पीकू की सिर्फ कलाकारों के अभिनय के कारण भी देखी जा सकती है। एक से बढ़कर एक अभिनेता इसमें हैं। एक वृद्ध, जिद्दी, झक्की, आलोचनावादी और जिसे आसानी से खुश न किए जा सके वाले भास्कर बैनर्जी के किरदार अमिताभ बच्चन ने प्राण फूंक दिए हैं। उनके बंगाली उच्चारण सुनने लायक हैं। अमिताभ ने कई भूमिकाएं निभाई हैं, लेकिन इस तरह की भूमिका में उन्हें पहले कभी नहीं देखा गया। बॉलीवुड के शहंशाह का अभिनय देखने लायक है। 
 
इरफान खान का अभिनय सम्मोहित करने वाला होता है। दर्शकों की ख्‍वाहिश रहती है कि वे हमेशा उन्हें स्क्रीन पर देखे। राणा चौधरी के किरदार को उन्होंने पूरी संपूर्णता के साथ अदा किया है। 
अमिताभ और इरफान जैसे दिग्गज कलाकार के बीच अपनी उपस्थिति दर्ज कराना आसान नहीं है, लेकिन फिल्म देखने के बाद दीपिका का किरदार याद रहता है। पिता की सेवा में लगी पीकू अपनी जिंदगी भी जीना चाहती है। वह शिकायत नहीं करती, लेकिन उसका चेहरा सब बयां करता है। दीपिका के चेहरे के एक्सप्रेशन देखने लायक हैं। यह उनके करियर के उम्दा परफॉर्मेंसेस में से एक है। 
 
पीकू को देखने के कई कारण हैं और इसे मिस नहीं करना चाहिए। 
 
बैनर : एमएसएम मोशन पिक्चर्स, सरस्वती एंटरटेनमेंट, राइजिंग सन फिल्म्स प्रोडक्शन्स
निर्माता : एनपी सिंह, रॉनी लहरी, स्नेहा राजानी 
निर्देशक : शुजीत सरकार 
कलाकार : अमिताभ बच्चन, दीपिका पादुकोण, इरफान खान, मौसमी चटर्जी, जीशु सेनगुप्ता, रघुवीर यादव
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 15 मिनट 
रेटिंग : 3.5/5 

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