देश को आजाद हुए भले ही 70 वर्ष हो गए हैं, लेकिन अभी भी लाखों लोग आसमान के नीचे हल्के होने जाते हैं। ऐसा नहीं है कि सरकार ने कोशिश नहीं की, लेकिन कुछ टॉयलेट्स को भ्रष्टाचार की दीमक चट कर गई तो कुछ लोग सभ्यता की दुहाई देते हुए टॉयलेट बनाने के खिलाफ हैं। शहर के लोगों को भले ही यह बात अटपटी लगती हो, लेकिन भारत के भीतरी इलाकों में अभी भी इस तरह की समस्या है।
खुले में शौच करने में सबसे ज्यादा परेशानी महिलाओं को होती है। सूर्योदय होने के पूर्व उन्हें गांव से बाहर जाना होता है। दिन में जरूरत हो तो पेट पकड़ कर बैठे रहो। मनचलों की छेड़खानी अलग से सहो। शायद इसी कारण वर्तमान सरकार स्वच्छता और शौचालय के निर्माण पर इतना जोर दे रही है। इन सारी बातों को 'टॉयलेट- एक प्रेम कथा' में बुना गया है। नाम से ही स्पष्ट है कि यह प्रेम कहानी टॉयलेट के इर्दगिर्द घूमती है।
केशव (अक्षय कुमार) और जया (भूमि पेडनेकर) की पहली मुलाकात टॉयलेट के सामने ही होती है। मुलाकात प्यार में बदलती है और प्यार शादी में। ससुराल आकर जया को पता चलता है कि यहां तो टॉयलेट ही नहीं है। अलसुबह उठकर महिलाओं के साथ समूह में जाकर 'लोटा पार्टी' करना है।
जया पढ़ी-लिखी है और चाहती है कि घर में टॉयलेट हो। ससुर (सुधीर पांडे) इसके लिए तैयार नहीं है। केशव पिता से डरता है इसलिए तरह-तरह के जुगाड़ करता है, लेकिन जुगाड़ टिकाऊ नहीं होते। इसके बाद केशव महिलाओं की समस्या को समझता है। किस तरह से वह अपनी रूठी पत्नी को मनाता है और अपने पिता सहित गांव वालों से लड़ता है यह फिल्म का सार है।
श्री नारायण सिंह निर्देशित यह फिल्म हमें भारत के भीतरी इलाकों में ले जाती है, जहां अभी भी दकियानुसी लोग रहते हैं। निर्देशक और लेखक (सिद्धार्थ-गरिमा) ने फिल्म को दो भागों में बांटा है। इंटरवल के पहले माहौल को हल्का-फुल्का रखा गया है और केशव तथा जया के रोमांस को कॉमेडी के साथ दिखाया गया है। हालांकि 49 वर्षीय अक्षय कुमार पर कई दृश्यों में उम्र हावी लगती है और इसीलिए फिल्म में स्पष्ट कर दिया गया है कि केशव 36 साल का हो गया है और किसी कारणवश उसकी शादी नहीं हो पाई है।
कुछ दृश्य आपको हंसाते हैं वहीं कुछ जगह लगता है कि फिल्म को बेवजह खींचा जा रहा है। कुछ दृश्य और गाने कम किए जा सकते थे। दूसरे हाफ में फिल्म थोड़ी गंभीर होती है। टॉयलेट वाला मुद्दा हावी होता है। कुछ जगह फिल्म सरकारी भोंपू भी बन जाती है, लेकिन बीच-बीच में मनोरंजक दृश्य भी आते रहते हैं और दर्शकों का मन फिल्म देखने में लगा रहता है।
सिद्धार्थ और गरिमा द्वारा लिखी कहानी और स्क्रिप्ट की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि आगे क्या होने वाला है यह सभी को पता रहता है और सबसे बड़ी खूबी यह है कि यह सफर मजेदार है। टॉयलेट के महत्व का संदेश हास्य और रोमांस में लपेट कर उन्होंने दिया है।
निर्देशक श्री नारायण सिंह के काम को देख लगता है कि वे ग्रामीण मानसिकता को अच्छे से समझते हैं। गांव या छोटे शहर का माहौल उन्होंने अच्छे से क्रिएट किया है। फिल्म में मैसेज के साथ एंटरटेनमेंट हो इस बात को उन्होंने ध्यान रखा है। हालांकि उनका तकनीकी पक्ष थोड़ा कमजोर नजर आया। कुछ जगह सेट नकली लगते हैं तो कहीं वीएफएक्स कमजोर हैं।
फिल्म का संपादन भी उन्होंने किया है इसलिए वे अपने ही दृश्यों को काटने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। इस कारण फिल्म की लंबाई अखरती है। जैसे सना खान वाले प्रसंग का कोई मतलब ही नहीं है। गानों की अधिकता से भी बचा जा सकता था। लठ्ठ मार होली को भी दो बार दिखाना अखरता है।
अक्षय कुमार ने अपना काम ईमानदारी के साथ किया है। उन्होंने ग्रामीण लहजे और बॉडी लैंग्वेज को बारीकी से पकड़ा है। जब उनके पिता द्वारा टॉयलेट तोड़ देने के बाद उनके गुस्से वाले सीन में उनका अभिनय बेहतरीन है। रोमांटिक दृश्यों में उम्र उन पर हावी लगी है। उनकी मूंछ पूरी फिल्म में एक जैसी नहीं है। कहीं-कहीं नकली लगती है और इस बात का ध्यान रखा जाना था।
भूमि पेडनेकर का अभिनय शानदार है। दृश्य के मुताबिक वे अपने चेहरे पर भाव लाती हैं और सभी पर वे भारी पड़ी हैं। अनुपम खेर का रोल महत्वहीन है और उन्हें केवल इसलिए फिल्म से जोड़ा गया है ताकि फिल्म वजनदार लगे। सुधीर पांडे और द्वियेंदु शर्मा का अभिनय शानदार है। गाने फिल्म का कमजोर पक्ष है।
टॉयलेट में छोटी-मोटी कमियां जरूर हैं, लेकिन जिस उद्देश्य से यह फिल्म बनाई गई है उसमें यह सफल है।
बैनर : वायकॉम18 मोशन पिक्चर्स, कृअर्ज एंटरटेनमेंट, प्लान सी स्टुडियोज़, केप ऑफ गुड फिल्म्स
निर्माता : अरूणा भाटिया, शीतल भाटिया, वायकॉम18 मोशन पिक्चर्स, अर्जुन एन कपूर, हितेश ठक्कर
निर्देशक : श्री नारायण सिंह
संगीत : विक्की प्रसाद, मानस-शिखर, सचेत-परम्परा
कलाकार : अक्षय कुमार, भूमि पेडनेकर, द्वियेंदु शर्मा, सुधीर पांडे, शुभा खोटे, अनुपम खेर
सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 41 मिनट
रेटिंग : 3/5