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वीरप्पन : फिल्म समीक्षा

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समय ताम्रकर

एक समय प्रतिभाशाली निर्देशकों में गिने जाने वाले रामगोपाल वर्मा ने बॉलीवुड से लम्बा ब्रेक लिया। इस दौरान उन्होंने कई फिल्म देखी और आत्ममंथन किया। नतीजा ये निकाला कि वे दोहराव के शिकार हो गए हैं। नई ताजगी और ऊर्जा के साथ उन्होंने 'वीरप्पन' के जरिये वापसी की, लेकिन उनकी यह फिल्म हड़बड़ी में बनाई गई है। फिल्म देखते समय लगा कि निर्देशक को बहुत जल्दी थी और वीरप्पन पर फिल्म बनाते समय वे उतनी गहराई में नहीं उतरे जितनी कि इस विषय की मांग थी। 
 
चंदन की तस्करी करने वाला वीरप्पन एक समय पुलिस के लिए सिरदर्द था। कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल के घने जंगलों में उसने उत्पात मचा कर पुलिस की नाक में दम कर दिया था। पुलिस को उस तक पहुंचने के लिए वर्षों लगे और इस दौरान उसने अपनी क्रूरता के जरिये सैकड़ों पुलिस वालों और आम इंसानों को मौत के घाट उतार दिया। 
 
रामगोपाल वर्मा को डार्क कैरेक्टर्स हमेशा आकर्षित करते आए हैं और कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि उन्होंने वीरप्पन पर फिल्म बनाने का निश्चय किया, लेकिन इस विषय की जो मांग थी उस पर रामू खरे नहीं उतर पाए। निर्देशन और लेखन जो किसी भी फिल्म को ताकत देते हैं, 'वीरप्पन' की कमजोर कड़ी साबित हुए। 
 
फिल्म बजाय वीरप्पन की जिंदगी को दिखाने के उस पुलिस ऑफिसर को महत्व देती है जो वीरप्पन को पकड़ने के लिए जाल बुनता है। अपने मास्टरमांइड के जरिये वह वीरप्पन को घेरता है। यही पर फिल्म कमजोर हो जाती है। संभवत: यह काल्पनिक चरित्र है। सचिन जोशी ने इस किरदार को निभाया है जो अपने कमजोर अभिनय से इस मजबूत किरदार को बौना बना देते हैं। 
 
रामगोपाल वर्मा इस किरदार से समझौता करते हुए लगे। उन्होंने सचिन को ज्यादा फुटेज इसलिए दिए क्योंकि सचिन की पत्नी फिल्म की निर्माता हैं। रामू के झुकने का सीधा असर फिल्म पर पड़ा है क्योंकि यह कहानी सचिन के नजरिये से दिखाई गई है और वीरप्पन को फुटेज कम मिले हैं जिसके बारे में दर्शक ज्यादा से ज्यादा जानना चाहते हैं। 
वीरप्पन के आरंभिक जीवन के बारे में एक लंबे वाइस ओवर के जरिये बताया गया है। ऐसा लगता है मानो डॉक्यूमेंट्री देख रहे हों। इसके बाद सारा फोकस इस बात पर है कि वीरप्पन को पुलिस कैसे पकड़ती है। चोर-पुलिस का यह खेल रोमांचविहीन है। पुलिस ऑफिसर सिर्फ बात करता रहता है और प्लान बनाता रहता है। उसके ये प्लान सफाई से नहीं बताए गए हैं और दर्शक इनके साथ जुड़ नहीं पाता।    
 
निर्देशक के रूप में रामगोपाल वर्मा खास प्रभावित नहीं करते। जंगल की बेहतरीन लोकेशन उन्होंने चुनी है, लेकिन वीरप्पन की कहानी को सही तरीके से पेश करने में वे चूक गए हैं। 
 
तकनीकी रूप से फिल्म औसत दर्जे की नजर आती है। फिल्म को ऐसा शूट किया गया है मानो कोई टीवी सीरियल हो। सिनेमेटोग्राफी कहीं अच्छी तो कहीं बुरी है। सम्पादन में भी त्रुटियां हैं। बैकग्राउंड म्युजिक आपके कान के पर्दे हिला देता है। 
 
संदीप भारद्वाज बिलकुल वीरप्पन की तरह नजर आए। उनका अभिनय दमदार है, लेकिन उन्हें कम फुटेज मिले हैं। सचिन जोशी निराश करते है। यही हाल लिसा रे का भी है जिन्हें फिल्म में बड़ा रोल मिला है। वीरप्पन की पत्नी के रूप में उषा जाधव का अभिनय उम्दा है। 
 
वीरप्पन का वह खौफ और चालाकी फिल्म से नदारद है जिसके लिए वह जाना जाता था। 

बैनर : वाइकिंग मीडिया एंड एंटरटेनमेंट 
निर्माता : बी.वी. मंजूनाथ, रैना सचिन जोशी 
निर्देशक : रामगोपाल वर्मा 
संगीत : जीत गांगुली, शरीब साबरी- तोषी साबरी 
कलाकार : संदीप भारद्वाज, लिसा रे, सचिन जोशी, उषा जाधव 
सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 2 घंटे 5 मिनट 27 सेकंट 
रेटिंग : 2/5 

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