कुहू अपने प्रेमी को खो चुकी है और उसका गम भुलाने के लिए वह कबीर से दोस्ती बढ़ाती है। कबीर के साथ वक्त गुजारने के बावजूद जब वह अपने पुराने प्रेमी को भुला नहीं पाती तो कबीर की जिंदगी से अलग हो जाती है। कबीर उसकी तलाश करता है, लेकिन वह नहीं मिलती। आखिर में फिल्मी अंदाज में दोनों मिल जाते हैं। इतनी छोटी-सी कहानी को भी परदे पर ठीक तरह से पेश नहीं किया गया। कबीर से अलग होने के बाद कुहू डेढ़ वर्ष के लिए कोलकाता क्यों चली जाती है? कबीर उसको ठीक से क्यों नहीं ढूँढता। वह बजाय उसे फोन, ई-मेल या एसएमएस करने के एक पेड़ पर अपने संदेश क्यों चिपकाता रहता है? उस पेड़ को लेखक ने इतना महत्व क्यों दिया जबकि पूरी फिल्म में एक बार भी कबीर और कुहू उस पेड़ के पास नहीं जाते? कबीर अपना घर और फोन नंबर क्यों बदल लेता है? कुहू अचानक क्यों बदल जाती है और गौरव कपूर से शादी करने के लिए राजी हो जाती है? कबीर के बारे में गौरव को सारी जानकारी कैसे रहती है? गौरव के जरिये भी कबीर कुहू से क्यों नहीं मिला? ऐसे ढेर सारे सवाल फिल्म देखते समय उठते हैं, जिनका जवाब नहीं मिल पाता। सचिन खोट की यह पहली फिल्म है और उनमें अनुभव की कमी झलकती है। फिल्म में कई दृश्य ऐसे हैं, जो नहीं भी होते तो कहानी पर कोई असर नहीं होता। फिल्म में स्थान और समय का भी ध्यान नहीं रखा गया है। कबीर और कुहू एक बिल्डिंग की छत पर मिलते रहते हैं। वह बिल्डिंग किसकी है? कहाँ है? वे वहाँ क्यों मिलते हैं? इस बारे में कुछ भी नहीं बताया गया। कुहू का मोबाइल कबीर सुबह लौटाने जाता है। उसके बाद दोनों एक रेस्तराँ में जाते हैं। वहाँ से निकलते हैं तो रात हो जाती है। दृश्यों का एक-दूसरे से तारतम्य भी नहीं है। कई दृश्यों को दोहराया गया है।
मल्लिका शेरावत और रणवीर शौरी का उम्दा अभिनय ही इस फिल्म का एकमात्र सकारात्मक पहलू है। दोनों ने अपने किरदार में घुसकर अभिनय किया है। ज़ीनत अमान, टीनू आनंद, सुष्मिता मुखर्जी और भारती आचरेकर छोटी-छोटी भूमिकाओं में नजर आए। 99 थप्पड़ और एक किस का यह सौदा महँगा है।
***** अद्भुत **** शानदार *** अच्छी ** औसत * बेकार