आ देखें जरा : इसमें दम नहीं ज़रा
निर्माता : विकी राजानी निर्देशक : जहाँगीर सुरती संगीत : गौरव दासगुप्ता, प्रीतम चक्रवर्ती कलाकार : बिपाशा बसु, नील नितिन मुकेश, राहुल देव, सोफी चौधरीरेटिंग : 1/5थ्रिलर फिल्म बनाना आसान काम नहीं है। केवल वही थ्रिलर फिल्में सफल होती हैं, जो दर्शक को बाँधकर रखें, जिसमें आगे क्या होने वाला है, यह उत्सुकता बनी रहे। कहने को तो ‘आ देखें जरा’ भी थ्रिलर है, लेकिन इसमें एक भी ऐसा दृश्य नहीं है जो रोमांच को बढ़ाए। पहली फ्रेम से आखिरी फ्रेम तक दर्शक इस फिल्म से जुड़ नहीं पाता और हैरतभरी निगाहों से देखता रहता है कि क्या हो रहा है? क्यों हो रहा है? थोड़ी देर बाद यह रुचि भी समाप्त हो जाती है और लगता है कि फिल्म खत्म हो और वो सिनेमाघर से बाहर निकलें। कहानी का जो प्लॉट है, उसमें एक बेहतरीन थ्रिलर बनने की गुंजाइश थी। फिल्म का नायक रे (नील नितिन मुकेश) के हाथ अपने नाना का एक कैमरा लगता है। उससे वह जिसका फोटो खींचता है उसके साथ भविष्य में क्या होने वाला है, तस्वीर के जरिये पता लग जाता है।
आज खुले लॉटरी के नंबर का वह फोटो उतारता है तो फोटो में अगले दिन खुलने वाली लॉटरी के नंबर आ जाते हैं। घुड़दौड़, शेयर और लॉटरी के जरिये वह खूब दौलत कमाता है। इस कैमरे की मदद से वह डीजे सिमी (बिपाशा बसु) की जान बचाता है, जो उसकी गर्लफ्रेंड बन जाती है। यहाँ तक कहानी को नीरसता के साथ पेश किया गया है। एक दिन रे अपनी तस्वीर उतारता है और फोटो में आता है काला रंग। उसकी मौत निकट है, कैमरा बताता है। रे जानना चाहता है कि वह कैसे मरेगा या कौन उसे मारेगा। एक बार फिर संभावना जागती है कि आगे फिल्म देखने में मजा आएगा, लेकिन ये उम्मीदें पूरी ध्वस्त हो जाती हैं। फिल्म के लेखक और निर्देशकों को समझ में नहीं आया कि कहानी को कैसे आगे बढ़ाया जाए। वे पूरी तरह कन्फ्यूज़्ड नजर आए। इसके बाद फिल्म में बेसिर-पैर की घटनाएँ घटती रहती हैं, जिनका दर्शकों से कोई लेना-देना नहीं है। निर्देशक जहाँगीर सूरती बुरी तरह असफल रहे। न तो वे बिपाशा-नील की लव स्टोरी ठीक से पेश कर सके और न ही कलाकारों से अच्छा काम निकलवाने में सफल रहे। लेखकों ने उनका काम और मुश्किल कर दिया। ‘जॉनी गद्दार’ में नील का अभिनय अच्छा था, लेकिन इस फिल्म में वे निराश करते हैं। बिपाशा के सामने उनकी घबराहट देखी जा सकती है। साथ ही उनकी संवाद अदायगी बहुत खराब है। बिपाशा के लिए ज्यादा स्कोप नहीं था। राहुल देव और अन्य कलाकारों ने खाना-पूर्ति की। फिल्म का संगीत औसत दर्जे का है। तकनीकी रूप से भी फिल्म कमजोर है। सिर्फ एक ही प्लस पाइंट है कि इसकी अवधि लगभग दो घंटे की है।
फिल्म की पटकथा में ढेर सारी खामियाँ हैं। जो लोग पत्र-पत्रिकाओं में फिल्म की गलतियाँ लिखकर बताते हैं, उनके लिए यह फिल्म बहुत काम आएगी। आ देखें जरा कौन ज्यादा गलतियाँ बताता है।