बैनर : के.सेरा सेरा निर्देशक : संगीत सिवन संगीत : प्रीतम कलाकार : बॉबी देओल, श्रेया सरन, नाना पाटेकर, जैकी श्रॉफ, चंकी पांडे, जरीना वहाब अकबर इलाहबादी का शेर है- शेखजी के दोनों बेटे बाहुनर पैदा हुए/ एक है खुफिया पुलिस में, एक फाँसी पा गया...। सनी देओल और बॉबी देओल यदि धर्मेंद्र के पुत्र न होते तो दुनिया के लाखों कामों में से कुछ भी कर रहे होते, पर इतना तय है कि एक्ंिटग नहीं कर रहे होते, हीरो नहीं होते। बॉबी देओल ने संगीत सिवन की ताजा फिल्म "एक- द पावर ऑफ वन" में वही एक्सप्रेशन दिए हैं, जो पिछली नाकाम फिल्म "बिच्छू" में दिए थे। बिच्छू में भी वो पेशेवर कातिल थे और इसमें भी हैं। इस फिल्म को रोमांटिक, कॉमेडी, थ्रिलर कहकर पेश किया गया है। वाकई इस फिल्म में तीनों चीजें मिलाने की कोशिश की गई है, जो बुरी तरह नाकाम रही है जब इतने मसाले थे, तो बेहतर होता कि इसमें थोड़ी भूत-प्रेत वाली कहानी और मिला दी जाती। थोड़ी-सी कहानी इतिहास के टच वाली डाल दी जाती। तब यह फिल्म होती- रोमांटिक, कॉमेडी, थ्रिलर, हॉरर, पीरियड फिल्म।दो हफ्ते पहले लगी फिल्म "ढूँढते रह जाओगे" में यही कहानी है। एक डायरेक्टर सफल फिल्म बनाने के लिए एक ही फिल्म में "शोले", "दिल वाले दुल्हनिया..." और "कुछ-कुछ होता है" का मसाला मिलाकर फिल्म बनाता है। यह ऐसा ही है जैसे गुझिया में समोसे का मसाला भर दिया जाए और उसे सरसों के तेल में तलकर सोया सॉस में डुबो दिया जाए। फिल्म में हजारों बार दिखाई गई कहानी फिर पेश की गई है कि हीरो बदमाश है और वो एक मासूम लड़के की जगह किसी परिवार में जा धँसता है। यह बहुत-सी फिल्मों में बताया गया है, मानो परिवार का प्यार ही था जिसके न मिलने पर हीरो बुरा बन गया। एक तरह से यह परिवार का महिमामंडन है। मगर हकीकत यह है कि परिवार में भी सैकड़ों जुर्म पलते हैं। अभी इंदौर में सगे बेटे ने अपने माँ-बाप को मरवा डाला। फिल्म वाले बताएँ कि ऐसे आदमी को सुधारने के लिए किस जगह भेजा जाए? भाई को मारने और किसी से मरवा डालने के तो इतने वाकये हैं कि टनों कागज काले किए जा सकते हैं। सास-बहू की जानलेवा रंजिशें, ननद के ताने, जेठानी-देवरानी के झगड़े...। परिवार की भी अपनी दिक्कतें हैं, जिनसे फिल्म वाले अक्सर मुँह चुराते हैं।
इस फिल्म की बात करने के लिए अभिषेक बच्चन की फिल्म "रन" की चर्चा जरूरी है। "रन" में एक ट्रेक अभिषेक बच्चन का चलता है और दूसरा हास्य कलाकार विजय राज का। विजय राज का हास्य ट्रेक अभिषेक बच्चन पर कई गुना भारी रहा है। ठीक इसी तरह इस फिल्म में नाना पाटेकर का कॉमेडी ट्रेक बहुत वजनी है। जब-जब बॉबी वाला हिस्सा पर्दे पर आता है, कोफ्त होती है। आधी फिल्म के बाद तो नाना पाटेकर से ही उम्मीद बचती है। कुल मिलाकर यह एक नाकाम फिल्म है। निर्देशक बहुत कन्फ्यूज रहा है और उसे समझ ही नहीं पड़ा है कि वो क्या कर रहा है, क्या बना रहा है।