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क्या यही सच है :‍ फिल्म समीक्षा

हाँ यही सच है...

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दीपक असीम

अपने प्रसिद्ध व्यंग्य लेख "वर्जीनिया वुल्फ से सब डरते हैं" में शरद जोशी ने लिखा कि अच्छी फिल्म का हमारे शहर में एक ही शो हो सकता है, सो ये बात अब भी सही है और अपने शहर में भी सही है। बल्कि हर शहर के बारे में सही है।

पूर्व आईपीएस अफसर योगेंद्र प्रताप सिंह ने सन्‌ त्रियासी में एक उपन्यास लिखा था। जाहिर है अंग्रेजी में। फिर उनका मन नहीं माना तो इस उपन्यास पर एक फिल्म भी बना दी, जिसे खुद उन्होंने ही डायरेक्ट भी किया है। इस फिल्म का नाम है "क्या यही सच है"।

इस फिल्म को कैलिफोर्निया फिल्म समारोह में सिल्वर अवॉर्ड भी प्राप्त हुआ। मगर अपने मुल्क में इस फिल्म को रिलीज डेट मिली 30 दिसंबर। साल का आखिरी हफ्ता और वो तारीख कि जब सारे लोग "थर्टी फर्स्ट" मनाने की तैयारियों में लगे थे। कई शहरों में फिल्म लग ही नहीं पाई। जहाँ लग पाई वहाँ के लोगों ने पाया कि ये फिल्म तकनीकी रूप से कमजोर होने के बावजूद मनोरंजन के मामले में भी दसियों फिल्म पर भारी है।

रा.वन और डॉन टू जैसी फिल्में तकनीकी रूप से ताकतवर होने के बावजूद क्या हैं? कंटेट के नाम पर एकदम कूड़ा। मगर "क्या यही सच है" तकनीकी रूप से बहुत कमज़ोर होने के बावजूद ऐसी बीसियों फिल्म पर भारी है।

फिल्म है योगेंद्र प्रसाद सिंह की आपबीती और कुछ कल्पनाओं पर। एक आईपीएस अफसर ईमानदार रहने की कसम खाता है और उसे अपने आला अफसरों से लेकर सियासी लोगों तक का विरोध सहना पड़ता है, लांछन सहने पड़ते हैं और कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ती है।

फिल्म की ताकत है अछूता कंटेंट और ट्रीटमेंट। शुरू में थोड़ा सी असहजता लगती है, मगर नए कलाकार बाद में ऐसा बाँधते हैं कि दर्शक छूट ही नहीं पाता। फिल्म का सच ही फिल्म का हीरो है। इसमें बताया गया है कि मलाईदार इलाकों की पोस्टिंग किस तरह गृहमंत्री के घर नीलाम होती है। मलाईदार पोस्ट के लिए मासिक किस्त भी बाँधी जाती है और बेईमान लोग पोस्टिंग खरीदकर भी अफसर को गिफ्ट करते हैं ताकि उनके धंधों पर किसी तरह की आँच न आए।

फिल्म देखने पर पहली बार लोगों को पता चलता है कि आईपीएस अफसर किस तरह आम पुलिस से भिन्ना होता है। किन नियम-कानूनों में उसे चलना पड़ता है और किस तरह उसे नियमों में उलझाकर काम करने से रोका जाता है। पूरी फिल्म एक अलग ही तरह का अनुभव देती है।

इस समय जब भ्रष्टाचार के खिलाफ एक खास तरह की चेतना पनपी है, यह फिल्म लोगों को ईमानदार रहने की अतिरिक्त प्रेरणा देती है। वाईपी सिंह ने फिल्म को फिल्मी होने से बचाया और उसे सच्चाई के नजदीक ही रहने दिया।

इस फिल्म को सितारा समीक्षकों की सराहना इसलिए नहीं मिली कि इससे वो बड़े लोग नाराज हो सकते थे, जिनकी फिल्में इन दिनों चल रही हैं। फिल्म के अंत में आप भूल जाते हैं कि आप एक ऐसे निर्देशक की फिल्म देख रहे हैं जिसने सारी उम्र पुलिस की नौकरी की है। काश कि इस फिल्म को ज्यादा से ज्यादा लोग देख पाते।

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