निर्माता : रॉनी स्क्रूवाला, सलमान खान
निर्देशक : नितेश तिवारी, विकास बहल
संगीत : अमित त्रिवेदी
कलाकार : इरफान खान, राजू, सनथ मेनन, रोहन ग्रोवर, नमन जैन, आरव खन्ना, विशेष तिवारी, चिन्मय चंद्रांशु, वेदांत देसाई, श्रेया शर्मा, द्विजी हांडा
सलमान खान सपनों की दुनिया में रहते हैं। इसीलिए वे "वीर" जैसी फिल्म लिखते हैं और "चिल्लर पार्टी" जैसी फिल्म के सहनिर्माता बन जाते हैं। "चिल्लर पार्टी" पहले बन चुकी थी। फिल्म सलमान खान को (शायद इरादतन) दिखाई गई और वे इसमें सहनिर्माता बन गए।
इस विधा पर उनकी पकड़ आमिर जैसी नहीं है, लिहाजा उन्हें कुछ भी ऐसा काम नहीं करना चाहिए, जो उनके बस का नहीं है। उन्हें चाहिए कि वे पर्दे पर अपना मैनेरिज्म, अपना जिस्म, अपनी सूरत दिखाएँ और पैसा कमाएँ। दिमाग पर जोर डालना उनका काम नहीं है। अगर डालने की कोशिश की तो "वीर" और "चिल्लर पार्टी" जैसे हादसों से हटकर और कुछ नहीं हो सकता।
एक होती है बाल फिल्म और एक होती है बचकानी फिल्म। "चिल्लर पार्टी" बाल फिल्म नहीं बचकानी फिल्म है। इसके निर्देशक नितेश तिवारी और विकास बहल को चाहिए कि वे माजिद मजीदी की हर फिल्म को दस-दस बार देखें ताकि उन्हें बच्चों के साथ काम करना आए।
अच्छे निर्देशक के हाथ में बच्चे बहुत सशक्त माध्यम होते हैं। वे दर्शकों को जितना भावुक कर सकते हैं, उतना बड़े नहीं। मगर यहाँ बच्चों को फिल्मी-सा बना दिया गया है। इसी कहानी को यदि कोई अच्छा निर्देशक फिल्माता तो बढ़िया फिल्म बन जाती।
कहानी एक आवारा बच्चे और उसके पालतू कुत्ते भिड़ू को लेकर है। ये बच्चा एक रहवासी सोसाइटी में कार साफ करने का काम करने आता है और सोसाइटी में रहने वाले बच्चों के साथ घुल-मिल जाता है। उसका कुत्ता भी सबका प्रिय हो जाता है। फिर यही कुत्ता मंत्री के पीए को हड़का देता है और मंत्री पूरे शहर को आवारा कुत्तों से मुक्त करने का अभियान चलाता है।
मंत्री का जोर सबसे पहले उसी कुत्ते को पकड़ने और मारने पर है। बच्चे उसे बचाने की कोशिश करते हैं। सबसे पहले तो यह हजम नहीं होता कि मंत्री पर एक आवारा कुत्ता भारी है। मंत्री उसे बिना नियम कानून मार नहीं सकता। ये किसी विदेशी शहर के मेयर के साथ तो चलता, पर यहाँ नहीं चल पा रहा।
फिल्म की सबसे बड़ी खामी है, दर्शकों को अपने साथ भावनात्मक रूप से जोड़ पाना। दूसरी खामी है बोरियत और झोल। तीसरी कमजोरी है बैकग्राउंड म्यूजिक। इस तरह की नाजुक फिल्मों का बैकग्राउंड संगीत भी नाजुक होता है, ऐसा लाउड नहीं कि सलमान खान की फिल्म "रेडी" का गीत ढिंका चिका याद आने लगे।
सरदार बच्चे का पात्र स्टीरियो टाइप है। बीसियों क्या पचासियों फिल्मों में सरदार बच्चे को ऐसे ही दिखाया गया है। यहाँ तक कि ऐसे परिवार भी नकली से लगते हैं। आखिरी में लाख रुपए का सवाल यह कि क्या इस फिल्म को देखा जाना चाहिए? जवाब है बिलकुल नहीं। ऐसी फिल्म देखने से तो तीन घंटे और कुछ भी किया जाना बेहतर है। बच्चों को भी इस फिल्म में शायद ही मजा आए।