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टीम : दोयम दर्जे की ‘टीम’

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समय ताम्रकर

IFM
निर्माता : मनोज चतुर्वेदी, संजय चतुर्वेदी
निर्देशक : अजय चंडोक
संगीत : डब्बू मलिक
कलाकार : सोहेल खान, अमृता अरोरा, आरती छाबडि़या, यश टोंक, व्रजेश हीरजी, सयाजी शिंदे, कुलभूषण खरबंदा
रेटिंग : 0.5/5
यू सर्टिफिकेट * 14 रील

’टीम : द फोर्स’ के कास्ट और क्रू पर नजर दौड़ाई जाए, तो ज्यादातर नाम दोयम दर्जे के नजर आते हैं। अब दोयम दर्जे के निर्देशक और कलाकारों से एक घटिया फिल्म की ही उम्मीद की जा सकती है और इस उम्मीद को ‘टीम’ की टीम नहीं तोड़ती। इस फिल्म में एक भी पक्ष ऐसा नहीं है जो प्रशंसा के काबिल हो।

अजय चंडोक ऐसे निर्देशक हैं, जिन्हें सस्ती फिल्म बनाने वाले निर्माता साइन करते हैं और घटिया फिल्म बनाने के बावजूद उनके हाथ में कुछ प्रोजेक्ट्‍स हैं। अभी हाल ही में उनकी ‘किससे प्यार करूँ’ प्रदर्शित हुई थी। ये बताना मुश्किल है कि ‘टीम’ ज्यादा घटिया है या ‘किससे प्यार करूँ’।

फिल्म की कहानी ऐसी है, जिसे कोई भी लिख सकता है। लेखक होना जरूरी नहीं है। तीन दोस्त अपना वीडियो एलबम बनाना चाहते हैं। फिल्म में दिखाया गया है कि उनके पास खाने को कुछ नहीं रहता, लेकिन दो तो इतने हट्टे-कट्टे हैं कि लगता है वे दिन में 6 बार खाते हों।

वीडियो एलबम बनाने के लिए दयालु मकान-मालिक इन प्रतिभाशाली (?) कलाकारों को सात लाख रुपए देता है। वे गोआ जाते हैं और इसी बीच मकान मालिक पर एक गुंडा मकान बेचने के लिए दबाव बनाता है। उस गुंडे को तीनों सबक सिखाते हैं।

आप सोच रहे होंगे कि इससे बेहतर कहानी तो मैं लिख सकता हूँ, परंतु ये मौका मिला है युनूस सेजवाल को। इन्होंने एक जमाने में डेविड धवन के लिए कुछ सफल फिल्में लिखी थीं। यहाँ निर्माता ने कम पैसे दिए होंगे, इसलिए उन्होंने घटिया कहानी टिका दी। युनूस साहब अभी भी उस दौर में जी रहे हैं, जो कब का बीत चुका है।

फिल्म के हीरो हैं सोहेल खान। सोहेल खान हँस रहे होंगे उन निर्माताओं पर जिन्होंने उन्हें फिल्म में हीरो बना डाला, परंतु उन्हें तो पैसे गिनने से मतलब है। उनकी सेहत पर हिट या फ्लॉप से कोई असर नहीं पड़ता, इसलिए उन्होंने तमाम ऊटपटांग हरकत इस फिल्म में कर डाली।

सोहेल की तरह फिल्म के हर पात्र ने ओवर एक्टिंग की, चाहे व्रजेश हीरजी हों, यश टोंक हों या सयाजी शिंदे। सयाजी शिंदे की वजह से एक-दो जगह आप हँस सकते हैं, लेकिन बाकी के अभिनय को देखकर रोना आता है। अमृता अरोरा को गानों में याद किया जाता है, जो कभी भी फिल्म के बीच में कहीं से भी टपक पड़ते हैं।

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फिल्म का संपादन तो कमाल का है। दो-तीन दृश्यों में तो संवाद अधूरा ही रह गया और उन्होंने दूसरा दृश्य जोड़ डाला। कई जगह फिल्म धुँधली नजर आती है। संगीतकार डब्बू मलिक की गाड़ी भी ऐसे निर्माताओं के बल पर चल रही है। गीत-संगीत के नाम पर वे कुछ भी बनाकर टिका देते हैं। फिल्म में एक जगह संवाद है ‘ये हमारे म्यूजिक वीडियो का डब्बू मलिक है। पता नहीं आज किसे पका रहा होगा।‘ पकाने का काम डब्बू ने नहीं बल्कि फिल्म से जुड़े हर व्यक्ति ने किया है। इस मामले में टीमवर्क दिखाई देता है।

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