इसके अलावा एक ‘काला बंदर’ भी है, जो लोगों को मारता है, चीजें चुराता है। उसे किसी ने नहीं देखा, लेकिन उसके बारे में तरह-तरह की अफवाहें हैं। इन सब बातों का गवाह बनता है फिल्म का नायक रोशन (अभिषेक बच्चन), जो न्यूयॉर्क से दिल्ली अपनी बीमार दादी (वहीदा रहमान) को छोड़ने के लिए आया है। उसकी दादी अपने अंतिम दिन अपने पुश्तैनी घर में गुजारना चाहती है। उसे दिल्ली 6 के लोग किसी अजूबे से कम नहीं लगते। वह मोबाइल से उनके फोटो खींचता रहता है। परिस्थितियाँ कुछ ऐसी घटती हैं कि फिल्म के अंत में नायक वापस न्यूयॉर्क नहीं जाना चाहता और उसकी दादी अपने ही लोगों से खफा होकर लौटना चाहती है। राकेश मेहरा ने काला बंदर, संगीत और दिल्ली में चल रही रामलीला के जरिये अपने चरित्रों को जोड़कर फिल्म को आगे बढ़ाया है। संगीत का भी इसमें अच्छा इस्तेमाल किया गया है। कुछ दृश्य बेहतरीन हैं। जैसे ओम पुरी अपनी बेटी के होने वाले पति के पिता से दहेज के लिए बातें करते हैं और पीछे बैठे प्रेम चोपड़ा शेयर के मोलभाव करते हैं। अछूत जलेबी को रामलीला पंडाल के बाहर बैठकर सुनना पड़ती है। काले बंदर के नाम पर सब लोग अपना उल्लू सीधा करते हैं। राकेश का निर्देशन अच्छा है, लेकिन लेखन में कुछ कमियाँ रह गईं। फिल्म का पहला हिस्सा सिर्फ चरित्रों को उभारने में ही चला गया। किरदार बातें करते रहते हैं, लेकिन फिल्म की कहानी बिलकुल भी आगे नहीं बढ़ती। फिल्म का अंत भी ज्यादातर लोगों को पसंद नहीं आएगा। अभिषेक बच्चन का किरदार भी कमजोर है, जबकि वे फिल्म के नायक हैं। ऊपर से उनके ज्यादातर संवाद अँग्रेजी में हैं और उनका उच्चारण भी उन्होंने विदेशी लहजे में किया है, जिसे समझने में कई लोगों को मुश्किल आ सकती है।सोनम कपूर का अभिनय अच्छा है, लेकिन उनके चरित्र को उभरने का अवसर नहीं मिला। अभिषेक का अभिनय कहीं अच्छा है तो कहीं बुरा। ज्यादातर दृश्यों में उनके चेहरे पर एक जैसे ही भाव रहे हैं। पवन मल्होत्रा, विजय राज और दिव्या दत्ता ने अपने किरदारों को बेहतरीन तरीके से पेश किया है। ओम पुरी, ऋषि कपूर और वहीदा रहमान को सिर्फ स्टार वैल्यू बढ़ाने के लिए लिया गया है। ये भूमिकाएँ उनके जैसे कलाकारों के साथ न्याय नहीं करतीं।
दिल्ली का सेट देखकर विश्वास करना मुश्किल होता है कि यह नकली है। एआर रहमान का संगीत ‘देहली 6’ की सबसे बड़ी खासियत है। मसकली, रहना तू, ये दिल्ली है मेरे यार गीत सुनने लायक हैं। गीतकार प्रसून जोशी का काम भी उल्लेखनीय है। तकनीकी रूप से फिल्म सशक्त है, लेकिन फिल्म के अधिकांश दृश्यों में अँधेरा नजर आता है।
कुछ कमियों के बावजूद इस शुद्ध देशी फिल्म को एक बार देखा जा सकता है।