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पेइंग गेस्ट्‍स : स्वागत के लायक नहीं

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समय ताम्रकर

IFM
निर्माता : राजू फारुकी
निर्देशक : पारितोष पेंटर
संगीत : साजिद-वाजिद
कलाकार : श्रेयस तलपदे, सेलिना जेटली, आशीष चौधरी, रिया सेन, जावेद जाफरी, नेहा धूपिया, चंकी पांडे, सयाली भगत, वत्सल सेठ, जॉनी लीवर, पेंटल, असरान
रेटिंग : 1.5/5


’पेइंग गेस्ट्‍स’ प्रदर्शित होने के कुछ घंटों पहले ही इस फिल्म से जुड़े सुभाष घई ने कह दिया कि यह फिल्म देखने लिए दिमाग घर रखकर आइए। चलिए घई साहब की बात मान ली, लेकिन इसके बावजूद ‘पेइंग गेस्ट्‍स’ देख निराशा होती है।

दिमाग घर पर रखकर आने की बात कहकर आप जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकते। माना कि इस तरह की फिल्मों में लॉजिक ढूँढने की कोशिश नहीं करना चाहिए, लेकिन कम से कम फिल्म तो ढंग की होनी चाहिए जबकि लॉजिक को साइड में रखने से लेखक और निर्देशक को ज्यादा स्वतंत्रता मिल जाती है। फिल्म में कुछ भी नया नहीं है। सैकड़ों बार दोहराए गए दृश्य इस फिल्म में भी नजर आते हैं।

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चार युवा (श्रेयस तलपदे, जावेद जाफरी, आशीष चौधरी और वत्सल सेठ) मौज-मस्ती के साथ जिंदगी जीना पसंद करते हैं। इनकी नौकरी चली जाती है और मकान मालिक घर से निकाल देता है।

नए घर की तलाश करते हुए इनकी मुलाकात मकान मालिक बल्लू (जॉनी लीवर) से होती है। बल्लू उनके आगे भारी-भरकम शर्त रख देता है। वो उन्हें ही पेइंग गेस्ट रखेगा, जिसकी शादी हो चुकी हो। शर्त सुनकर चारों का दिमाग घूमने लगता है। वे ठहरे कुआँरे, पत्नी कहाँ से लाएँगे? आखिरकार दो दोस्त (श्रेयस और जावेद) महिला का भेष धारण करते हैं और बल्लू को बेवकूफ बनाते हैं।

इस हास्य फिल्म में अपराध की कहानी भी जोड़ी गई है। रोनी (चंकी पांडे) बल्लू का भाई है और वह उसे परेशान करता है। बल्लू की तरफ से चारों दोस्त उससे निपटते हैं।

कहानी के नाम पर फिल्म में कुछ भी नहीं है। फिल्मकार का सिर्फ एक ही उद्देश्य है दर्शकों को हँसाना। छोटे-छोटे हास्य दृश्य रचे गए हैं। ज्यादातर का कहानी से कोई लेना-देना नहीं है। इन दृश्यों को देख हँसी नहीं आती है।

स्क्रीनप्ले में इतना दम नहीं है कि बिना कहानी के वो दर्शकों को बाँधकर रखे। फिल्म में हास्य की बहुत गुंजाइश थी, लेकिन नया सोच पाने में निर्देशक और लेखक पारितोष पेंटर बुरी तरह नाकाम रहे।

फिल्म का अंत तो सीधे-सीधे ‘जाने भी दो यारों’ से उठा लिया गया है, जिसमें एक नाटक का मंचन होता रहता है और सारे पात्र उस नाटक का हिस्सा बन जाते हैं। लेकिन फिल्म के इस हिस्से में भी हँसी तो दूर चेहरे पर मुस्कान तक नहीं आती।

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अभिनय में श्रेयस तलपदे और जावेद जाफरी प्रभावित करते हैं। आशीष चौधरी और वत्सल सेठ के अभिनय में सुधार दिखाई देता है। हीरो की तुलना में सेलिना जेटली, नेहा धूपिया, रिया सेन जैसे भारी नाम हैं, लेकिन इन्हें दृश्य भी कम मिले और इनके ग्लैमर का भी उपयोग नहीं किया गया। सयाली भगत सिर्फ भीड़ बढ़ाने के लिए हैं। जॉनी लीवर, पेंटल, असरानी और चंकी पांडे के हँसाने के सारे प्रयास व्यर्थ हो गए।

फिल्म का संगीत एक और निराशाजनक पहलू है। साजिद-वाजिद ने एक से एक घटिया धुनें बनाई हैं। कुल मिलाकर ‘पेइंग गेस्ट्‍स’ में मनोरंजन के लायक कुछ भी नहीं है।

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