बोल बच्चन : फिल्म समीक्षा
बैनर : अजय देवगन फिल्म्स, श्री अष्टविनायक सिनेविजन लिमिटेड निर्माता : ढिलिन मेहता, अजय देवगन निर्देशक : रोहित शेट्टी संगीत : हिमेश रेशमिया, अजय-अतुल कलाकार : अजय देवगन, अभिषेक बच्चन, असिन, प्राची देसाई, कृष्णा, अर्चना पूरनसिंह, असरानी, नीरज वोरा, अमिताभ बच्चन (आइटम नंबर) सेंसर सर्टिफिकेट : यूए * 2 घंटे 34 मिनट 21 सेकंडरेटिंग : 2.5/5आज के सफलतम डॉयरेक्टर्स में से एक रोहित शेट्टी पर ऋषिकेश मुखर्जी द्वारा निर्देशित गोलमाल (1979) का बहुत ज्यादा प्रभाव है। पहले तो उन्होंने फिल्म के नाम को भुनाते हुए गोलमाल नाम की तीन फिल्में बना डाली और अब उस क्लासिक फिल्म से इंस्पायर होकर बोल बच्चन बनाई है। ऋषिदा की गोलमाल बॉलीवुड की बेहतरीन हास्य फिल्मों में से एक है। उत्पल दत्त और अमोल पालेकर की एक्टिंग, सिचुएशनल कॉमेडी और बेहतरीन संगीत की वजह से आज भी यह फिल्म टीवी पर देखी जाती है। उस फिल्म को फिर बनाना जोखिम भरा काम है। इसलिए रोहित ने सेफ गेम खेलते हुए गोलमाल की मोटी बातें और बेसिक प्लाट को लिया है और इसमें टिपिकल रोहित शेट्टी तड़का लगाकर बोल बच्चन में पेश किया है। कहानी में जो बातें नई जोड़ी गई हैं वो सिर्फ फिल्म की लंबाई बढ़ाने के ही काम आई है। जैसे अजय के सौतेले भाई वाला ट्रेक, अजय की प्रेमिका वाला ट्रेक जो दुर्घटना में मारी जाती है, का कोई महत्व नहीं है और ये बातें नहीं भी होती तो कहानी पर कोई असर नहीं पड़ता। गोलमाल में उत्पल दत्त का किरदार था, उसकी जगह बोल बच्चन में अजय देवगन का युवा किरदार डाला गया है। शायद इस समय कोई ऐसा अभिनेता ही नहीं है जो वैसी एक्टिंग कर पाता जैसी उत्पल दत्त ने की थी। बोल बच्चन की शुरुआत उस बल्लेबाज की तरह है जो क्रीज पर जमने में टाइम लेता है। आरंभिक 45 मिनट उबाऊ हैं। अब्बास (अभिषेक बच्चन) के झूठ बोलने के लिए जो परिस्थितियां गढ़ी गई हैं उसमें काफी समय खर्च किया गया है और फिर भी बात नहीं बनती। फिल्म स्पीड तब पकड़ती है जब अब्बास अपनी मां के बारे में झूठ बोलता है और मुजरे वाली (अर्चना पूरण सिंह) को मां बनाकर लाता है। यह सीन बड़ा ही मजेदार बना है क्योंकि उसकी एक नहीं बल्कि तीन-तीन मां आ जाती हैं। इसके बाद झूठ पर झूठ का सिलसिला चल पड़ता है। एक भाई ऐसा पैदा करना पड़ता है जिसकी मूंछ नहीं है।
अब्बास के झूठ बोलने वाले और उन्हें सच साबित करने वाले दृश्यों को युनूस सेजवाल ने बहुत अच्छे से लिखा है और ये दृश्य बेहद मजेदार बन पड़े हैं। पृथ्वीराज रघुवंशी (अजय देवगन) के खास माखन (नीरज वोरा) को शक है कि दाल में कुछ काला है। वह अब्बास की हर बात पर प्रश्न पूछता है और अब्बास उसे झूठ बोलता रहता है और इस दरमियान बेहतरीन हास्य सामने आता है। अभिषेक का अब्बास बन पृथ्वीराज के सामने डांस का नमूना पेश करने वाला सीन तो जबरदस्त है। ऐसे तीन-चार दृश्य और हैं जब सिनेमहॉल ठहाकों से गूंज उठता है।
क्लाइमेक्स में जाकर फिल्म फिर कमजोर पड़ जाती है। ‘कर्ज’ के गीत ‘एक हसीना थी...’ के जरिये पृथ्वी का अब्बास की पोल खोलने वाला और उसके बाद पहाड़ पर अजय और अभिषेक के अटकने वाली बात दमदार नहीं बन पाई है। निर्देशक के रूप में रोहित शेट्टी जल्दबाजी में लगे और उन्होंने छोटी-छोटी बातों को इग्नोर किया। गांव का जो सेट लगाया गया है वो पूरा नकली लगता है। एक सीन में चलती ट्रेन में बैठे असिन और असरानी बात कर रहे हैं। ट्रेन की खिड़की से बाहर का दृश्य दिखाई दे रहा है, लेकिन असिन और असरानी के चेहरे पर एक जैसी ही रोशनी पड़ती है। हास्य सीन पर रोहित की पकड़ नजर आती है और उन्होंने दर्शकों को हंसने के लिए कई मौके उपलब्ध कराए हैं। उनके फाइट सीन अब दोहराव का शिकार होने लगे हैं। रोहित यह बात अच्छी तरह जानते थे कि अभिनय के मामले में अभिषेक कमजोर हैं, इसलिए ज्यादातर अभिषेक के साथ उन्होंने असरानी और कृष्णा को रखा ताकि सीन में वजन आए। असरानी और कृष्णा की नोक-झोक भी दर्शकों को गुदगुदाती है। अभिषेक बच्चन का अभिनय औसत दर्जे का है और क्लाइमेक्स में कार पर खड़े होकर अजय देवगन के सामने उनकी एक्टिंग बहुत ही बुरी है। अजय देवगन का किरदार फिल्म में सबसे मजबूत है। गांव के पठ्ठे के रोल में उन्होंने जान फूंक दी है। उन्होंने अंग्रेजी को खूब बिगाड़ कर बोला है, जैसे ‘एक्टिंग इज़ नॉट माय कप ऑफ लस्सी’ (एक्टिंग मेरे बस की बात नहीं), ‘सक्सेस इज द की-होल टू सेक्सोफोन’ , योअर इअर ड्रम्स आर प्लेइंग ड्रम्स (तुम्हारे कान बज रहे हैं), ‘बॉय इन आर्मपिट हाइपर सिटी नॉइज पॉल्यूशन’ (बगल में छोरा, शहर में ढिंढोरा), आई रिमेम्बर यू मिल्क नंबर सिक्स (तुम्हें छठी का दूध याद दिलाद दूंगा), लेकिन उनके हर अंग्रेजी संवाद पर हंसी आए जरूरी नहीं है।
असिन और प्राची देसाई सिर्फ शो-पीस की तरह नजर आईं। कृष्णा, नीरज वोरा, अर्चना पूरण सिंह और असरानी की एक्टिंग उम्दा है। ‘चलाओ ना नैनों से’ ही एकमात्र ऐसा गाना है जो याद रह पाता है। फिल्म के संवाद औसत से बेहतर हैं। हर कहानी की एक शुरुआत, एक मध्य और एक अंत रहता है। बोल बच्चन की कहानी का मिडिल पार्ट बहुत मजबूत है और यही बात फिल्म को ‘वन टाइम वॉच’ बनाता है।