मध्यांतर तक फिल्म में केवल रहस्यमय घटनाएँ होती रहती हैं और कहानी बिलकुल भी आगे नहीं खिसकती। इस हिस्से में शाइनी आहूजा, मनोज जोशी और परेश रावल को महत्व दिया गया है। मध्यांतर के कुछ मिनट पूर्व अक्षय कुमार की एंट्री होती है। अक्षय के आने से उम्मीद बँधती है कि कहानी आगे बढ़ेगी, लेकिन जल्द ही यह उम्मीद भी टूट जाती है। अक्षय के आने के बाद सारे किरदारों को साइड लाइन कर दिया गया है। अक्षय एक मनोचिकित्सक हैं और इस तरह की घटनाओं के लिए वे किसी मानसिक रोगी को जिम्मेदार ठहराते हैं। वे काम करते हुए कम और फूहड़ मजाक करते हुए ज्यादा दिखाई देते हैं। अक्षय बहुत जल्दी और आसानी से उस व्यक्ति तक पहुँच जाते हैं और इससे अक्षय की भूमिका का महत्व घट जाता है। विक्रम गोखले वाला ट्रैक भी बेमतलब ठूँसा गया है। प्रियदर्शन ने एक निर्देशक के बतौर अपने अभिनेताओं से उम्दा काम लिया है, लेकिन वे पूरे समय दर्शकों को बाँधकर नहीं रख पाए। फिल्म में ऐसे कई हिस्से हैं जहाँ बोरियत होती है। प्रियन ने फिल्म की लंबाई भी बेहद ज्यादा रखी है। कम से कम आधा घंटा इसे छोटा किया जाना चाहिए। ‘हरे कृष्णा हरे राम’ जैसे सुपरहिट गीत को भी बर्बाद कर दिया गया है। यह गीत फिल्म में तब आता है जब अंत में परदे पर नामावली आती है। इस गीत को अक्षय कुमार की एंट्री के समय दिखाया जाना था।अक्षय कुमार हास्य भूमिकाओं में अपनी पकड़ मजबूत करते जा रहे हैं। उन्होंने अपने अभिनय के जरिये ही कई दृश्यों को देखने लायक बनाया है। उनके चरित्र को और सशक्त बनाए जाने की जरूरत थी। विद्या बालन को अंतिम आधे घंटे में अभिनय करने का अवसर मिला और उन्होंने अपना चरित्र बखूबी निभाया। शाइनी आहूजा ने ओवर एक्टिंग की। अमीषा की भूमिका महत्वहीन है और शायद इसीलिए अमीषा ने अनमने ढंग से अपना काम किया है। परेश रावल हँसाने में कामयाब रहे। मनोज जोशी, राजपाल यादव और असरानी ने भी अपने-अपने चरित्र अच्छे से अभिनीत किए।
प्रीतम का संगीत अच्छा है। ‘हरे कृष्णा हरे राम’ के अलावा ‘जिंदगी का सफर’ भी अच्छा बन पड़ा है। तकनीकी रूप से फिल्म बेहद सशक्त है। पूरी फिल्म को एक हवेली में फिल्माया गया है और थीरू ने कमाल का फिल्मांकन किया है।
फिल्म का जबरदस्त क्रेज है और दर्शकों को फिल्म से बेहद अपेक्षाएँ हैं, लेकिन ‘भूलभुलैया’ उन अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरती।