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माई नेम इज खान : साधारण आदमी की असाधारण यात्रा

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हमें फॉलो करें माई नेम इज खान

समय ताम्रकर

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निर्माता : हीरू यश जौहर, गौरी खान
निर्देशक : करण जौहर
कहानी-स्क्रीनप्ले : शिबानी बाठिजा
गीत : निरंजन आयंगार
संगीत : शंकर-अहसान-लॉय
कलाकार : शाहरुख खान, काजोल, जिमी शेरगिल, ज़रीना वहाब
यू/ए * दो घंटे 40 मिनट
रेटिंग : 3.5/5

ज्यादातर लोग धर्म के आधार पर राय बनाते हैं कि वह इंसान अच्छा है या बुरा है। 9/11 के बाद इस तरह के लोगों की संख्‍या में जबर्दस्त इजाफा हुआ है। अमेरिका और यूरोप में एशियाई लोगों के प्रति अन्य देशों के लोगों में नफरत बढ़ी है। ‘ट्विन टॉवर्स’ पर हमला करने वाले मुस्लिम थे, इसलिए सारे मुसलमानों को संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगा। जबकि व्यक्ति का अच्छा या बुरा होना किसी धर्म से संबंध नहीं रखता है।

‘माई नेम इज खान’ में बरसों पुरानी सीधी और सादी बात कही गई है। ‘दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं अच्छे या बुरे।‘ इस लाइन के इर्दगिर्द निर्देशक करण जौहर और लेखिका शिबानी बाठिजा ने कहानी का तानाबाना बुना है। उपरोक्त बातें यदि सीधी-सीधी कही जाती तो संभव है कि ‘माई नेम इज खान’ डॉक्यूमेंट्री बन जाती और ज्यादा लोगों तक बात नहीं पहुँच पाती। इसलिए मनोरंजन को प्राथमिकता देते हुए लवस्टोरी को रखा गया और बैकड्रॉप में 9/11 की घटना से लोगों के जीवन और नजरिये पर क्या प्रभाव हुआ यह दिखाया गया।

कहानी है रिज़वान खान (शाहरुख खान) की। वह एस्पर्गर नामक बीमारी से पीड़ित है। ऐसा इंसान रहता तो बहुत होशियार है, लेकिन कुछ चीजों से वह डरता है। घबराता है। इसलिए आम लोगों से थोड़ा अलग दिखता है। रिज़वान पीला रंग देखकर बैचेन हो जाता है। अनजाने लोगों का साथ और भीड़ से उसे घबराहट होती है। शोर या तेज आवाज वह बर्दाश्त नहीं कर पाता। लेकिन वह खूब किताबें पढ़ता है। उसकी याददाश्त बेहद तेज है। टाइम-टेबल से वह काम करता है।

रिजवान पर अपनी माँ (जरीना वहाब) की बातों का गहरा असर है, जिसने उसे बचपन में इंसानियत के पाठ पढ़ाए थे। माँ के निधन के बाद रिज़वान अपने छोटे भाई जाकिर (जिमी शेरगिल) के पास अमेरिका चला जाता है। अपने भाई की कंपनी के प्रोडक्ट्स वह बाजार में जाकर बेचता है और उसकी मुलाकात मंदिरा (काजोल) से होती है।

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मंदिरा अपने पति से अलग हो चुकी है और उसका एक बेटा है। रिजवान और मंदिरा एक-दूसरे को चाहने लगते हैं। जाकिर नहीं चाहता कि रिजवान हिंदू लड़की से शादी करे, लेकिन रिजवान उसकी बात नहीं मानता। शादी के बाद रिजवान और मंदिरा खुशहाल जिंदगी जीते हैं, लेकिन 9/11 की घटना के बाद उनकी जिंदगी में भूचाल आ जाता है।

एक ऐसी घटना घटती है कि रिजवान को मंदिरा अपनी जिंदगी से बाहर फेंक देती है। मंदिरा को फिर पाने के लिए रिजवान अमेरिका यात्रा पर निकलता है और किस तरह वह उसे वापस पाता है यह फिल्म का सार है।

कहानी में रोमांस और इमोशन का अच्छा स्कोप है और करण जौहर ने इसका पूरा फायदा उठाया है। उन्होंने कई छोटे-छोटे ऐसे दृश्य रचे हैं जो सीधे दिल को छू जाते हैं। काजोल और शाहरुख के रोमांस वाला भाग बेहतरीन है। इसमें करण को ज्यादा मेहनत नहीं करना पड़ी होगी क्योंकि शाहरुख-काजोल में गजब की कैमेस्ट्री है। ‘बाजीगर’ को रिलीज हुए बरसों हो गए लेकिन इस गोल्डन कपल में अभी भी ताजगी नजर आती है।

समुद्र किनारे खड़े होकर शहर की ओर देखते हुए रिजवान कामयाब होने की बात कहता है। यह दृश्य शाहरुख की जिंदगी से लिया गया है। फिल्मों में आने के पहले मुंबई में समुद्र किनारे खड़े होकर उन्होंने इस शहर पर छा जाने का ख्‍वाब देखा था।

मध्यांतर के पहले वाला हिस्सा शानदार है। फिल्म की पहली फ्रेम से ही दर्शक रिजवान और मंदिरा के परिवार का हिस्सा बन जाता है और उनके दर्द और खुशी को वह महसूस करता है। फिल्म के दूसरे हिस्से में कुछ गैर-जरूरी दृश्य हैं और कहीं-कहीं फिल्म अति नाटकीयता का शिकार हुई है, लेकिन ये कमियाँ फिल्म की खूबियों के मुकाबले बहुत कम है।

फिल्म के मुख्य किरदार को एस्पर्जर सिंड्रोम से ग्रस्त क्यों दिखाया गया? इसके दो कारण है। पहला, फिल्म कुछ अलग दिखे, शाहरुख को कुछ कर दिखाने का अवसर मिले। और दूसरा कारण ये कि इंसानियत, धर्म, अच्छाई और बुराई को वो इंसान उन भले-चंगे लोगों से ज्यादा अच्‍छी तरह समझता है, जिसे लोगों को समझने में कठिनाई होती है।

शाहरुख खान के आलोचक अक्सर कहते हैं कि वे हर किरदार को शाहरुख बना देते हैं, लेकिन यहाँ वे रिजवान वे ऐसे घुल गए कि शाहरुख याद ही नहीं रहते। रिजवान की बॉडी लैंग्वेज, चलने और बोलने का अंदाज, उसकी कमियाँ, उसकी खूबियाँ को उन्होंने इतनी सूक्ष्मता से पकड़ा है कि लगने लगता है कि उनसे बेहतरीन इस किरदार को कोई और नहीं निभा सकता था। खासतौर पर रिजवान जब शरमाकर हँसता है तो उन दृश्यों में शाहरुख का अभिनय देखने लायक है। उन्होंने स्क्रिप्ट से उठकर अभिनय किया है। जो लोग ‍कहानी से सहमत नहीं भी हो, उन लोगों को भी शाहरुख का अभिनय बाँधकर रखता है।

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काजोल में चंचलता बरकरार है। मंदिरा के रूप में उनकी एक्टिंग देखने लायक है। कई दृश्यों में उनकी आँखें संवाद से ज्यादा बेहतर तरीके से अपनी बात कहती है। छोटी-छोटी भूमिकाओं में कई कलाकार हैं और सभी ने अपना काम बखूबी किया है।

रवि के चन्द्रन की सिनेमेटोग्राफी अंतरराष्ट्रीय स्तर की है। फिल्म का संपादन उम्दा है। शंकर-अहसान-लॉय ने फिल्म के मूड के अनुरूप संगीत दिया है।

‘माई नेम इज खान’ में कई मैसेजेस हैं, जिसमें अहम ये कि धर्म का चश्मा पहनकर व्यक्ति का आँकलन न किया जाए। शाहरुख-काजोल का अभिनय, करण का उम्दा निर्देशन और मनोरंजन के साथ संदेश यबातेफिल्म को देखने लायक बनातहै।

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