फिल्म का पूरा नाम विदेश नहीं "विदेश, हेवन ऑफ अर्थ" है। नाम से ही लगता है कि दीपा मेहता व्यंग्य कर रही हैं। पंजाब में कनाडा जाने और कनाडा में लड़की ब्याहने की होड़ सी है। मगर पंजाब ही क्यों पूरे देश में यह चीज़ पाई जाती है, किसी प्रदेश में कनाडा जाने की होड़ है तो किसी में अमेरिका। फिल्म के ज़रिए दीपा मेहता एक बात तो यह बताना चाहती हैं कि विदेश स्वर्ग नहीं है। लोग अपनी बेटियों को विदेश ब्याह देते हैं और विदेश में बेटी को तरह-तरह से सताया जाता है। विदेश में नौकर महँगे पड़ते हैं, सो इंडियन बीवी बाहर से भी कमा कर लाती है, घर का काम भी करती है और बच्चे भी पैदा करती है, जिसके लिए दूसरे देश की लड़कियाँ आसानी से तैयार नहीं होतीं। इंडियन लड़की के संस्कारों की वजह से उसे पीटा भी जा सकता है, गालियाँ भी सुनाई जा सकती हैं, वो बेचारी गऊ कुछ नहीं कहेगी। विदेशी लड़की एक मिनट में सबको अंदर करा सकती है। मगर फिल्म में दीपा मेहता ने जो कुछ बताया है, वो अतिशयोक्ति है। अगर विदेश को स्वर्ग कहना एक अति है, तो विदेश फिल्म में दीपा ने जो बताया है, वो दूसरी अति है।फिल्म में कुछ दृश्य बहुत ताकतवर हैं। नायिका की पिटाई को क्रिकेट कॉमेंट्री के साथ उम्दा ढंग से गूँथा गया है। नायिका की पिटाई देखकर मासूम बच्ची बिलख कर रोती है, जबकि बड़े उसे ठंडेपन से लेते हैं। कोई भी बच्चा पहली बार हिंसा देखकर अंदर से हिल जाता है, फिर चाहे वो हिंसा सामान्य मार-पीट हो या खाने के लिए पशु का वध। फिल्म की नायिका टिपिकल पंजाबी लड़की बताई गई है। वो कहती है कि उसे पढ़ने का शौक है। कविताएँ, कहानियाँ, उपन्यास, नाटक...। फिल्म में कई जगह नायिका कविताएँ दोहराती है। ये हिस्से खासतौर पर भारी हो उठे हैं।
फिल्म में एक प्रतीक शेषनाग का है। हिन्दू मान्यता के अनुसार शेषनाग पर विष्णु विराजमान हैं और उस नाग ने अपने फन पर धरती को उठा रखा है। फिल्म में एक सामान्य साँप को शेषनाग कहा गया है। सवाल यह है कि क्या किसी भी नाग या साँप को शेषनाग कहा जा सकता है? फिल्म का अंत पलायनवादी है। ऐसा लगता है कि दीपा मेहता ने विदेश में बेटी ब्याहने के खिलाफ कोई प्रचार फिल्म बनाई है। फिल्म कई जगह चमक छोड़ती है मगर कुल मिलाकर बात बन नहीं पाती।