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सदियाँ : ऐसे होते हैं बिना तैयारी से किए काम

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अनहद

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बैनर : इंद्रजीत फिल्म कम्बाइन्स
निर्माता-निर्देशक : राज कँवर
संगीत : अदनाम सामी
कलाकार : लव सिन्हा, फरीना वजीर, रेखा, हेमा मालिनी, ऋषि कपूर, जावेद शेख

शत्रुघ्न सिन्हा के बेटे नहीं होते तो लव सिन्हा फिल्म "सदियाँ" में हीरो तो क्या साइड एक्टर के तौर पर भी नहीं आ सकते थे। शक्ल-सूरत और कद-काठी के मामले में वे बेहद गरीब हैं। कतई हीरो मटेरियल वे नहीं हैं।

अभी तक हम तुषार कपूर को रोते थे, लव सिन्हा उनसे भी दयनीय निकले। तुषार कपूर कम से कम जैसी-तैसी एक्टिंग तो कर ही लेते हैं, मगर लव सिन्हा के उच्चारण बेहद खराब हैं। नायिका का नाम चाँदनी है और वे आधी बार उसे "चानदनी" बोलते हैं।

नायिका फरीना वजीर खुद अपने आपको कई बार "चानदनी" कहती हैं। अन्य उच्चारण भी बेहद खराब है। फूलों को नायिका अँगरेजी वाले एफ से बोलकर मूर्ख वाला फूल कहती है।

सितम यह कि नायिका अमृतसर के बड़े खानदान की मुस्लिम लड़की बताई गई है। हीरोइन की माँ हीरो को कोसते हुए खुदा गारत करे की बजाय "खुदा गैरत करे" बोलती है। गलत-सलत बोलने में तमाम कलाकार एक-दूसरे से होड़ करते लगते हैं।

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हीरोइन डल झील को डाल झील बोलती है। रोमन लिपि में संवाद कलाकारों को दिए जाते हैं। हीरो का बेटा और हीरोइन बनने की ख्वाहिशमंद लड़की ने हिन्दी-उर्दू सीखी ही नहीं। दोस्तों से भी वे हिंग्लिश में बतियाते हैं। अब हिन्दी बोलें तो कैसे बोलें।

अँगरेजी में डी ए एल लिखा होगा तो हीरोइन ने पढ़ दिया डाल झील...। किसी और का पैसा लग रहा होता तो निर्देशक कट बोलकर फिर से सीन फिल्माता। मगर राज कँवर गरीबा-गरीबी में खुद फिल्म बना रहे थे। सो पैसे बचाने के लिए जिसने जो बोला रख लिया है।

पार्टीशन के बाद के समय को फिल्माते हुए राज कँवर ने ट्रीटमेंट भी सन सत्तर वाला ही दिया है। दूसरी दिक्कत यह है कि कहीं से भी वो जमाना नहीं लगता। न पहनावों से और न लोकेशंस से।

डल झील फिल्माते हुए थोड़ी-सी सफाई करा लेनी थी, सूने हिस्सों में निकल जाना था। इतनी गंदी तो सत्तर के दशक में डल झील कभी नहीं थी। ना ही उसके किनारों पर इतने कब्जे उस समय हुए थे। अमृतसर भी आज का ही लगता है, पुराना नहीं।

संवाद बहुत उबाऊ, लाउड और बासी हैं। गाने और कोरियोग्राफी पर मौजूदा दौर की कई फिल्मों का असर नजर आता है। नायिका फरीना वजीर जरूर कुछ खूबसूरत हैं और अभिनय के मामले में भी ठीक ही हैं, पर हीरो सब कबाड़ा कर डालता है।

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कहानी हिन्दू-मुस्लिम प्यार की है और साफ लगता है कि निर्देशक गदर से प्रभावित हैं। शत्रुघ्न सिन्हा के बेटे की लांचिंग इससे ज्यादा बुरी फिल्म से नहीं हो सकती थी और ना ही इससे बुरा कोई निर्देशक उन्हें पेश कर सकता था।

फिल्म में इतने तरह की बुराइयाँ हैं और इतने स्तरों पर हैं कि इस फिल्म के आधार पर कई किताबें लिखी जा सकती हैं जिनका केंद्रीय विषय होगा "कैसी फिल्म नहीं बनाना चाहिए और कैसे फिल्म नहीं बनाना चाहिए"।

रेखा, ऋषि कपूर वगैरह अच्छे कलाकार भी क्या कर सकते हैं। ये बेचारे अपना अभिनय कर सकते हैं किसी का नसीब बना और बिगाड़ नहीं सकते।

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