साउंडट्रेक : एक सुबह बुखार उतरने की
बैनर : सारेगामा इंडिया लिमिटेड, इंडी आइडियाजनिर्माता : संजीव गोयनका, अपूर्व नागपाल निर्देशक : नीरव घोष संगीत : मिडिवल पंडित्ज, कर्ष काले, कैलाश खेर, विशाल वैद्य, लक्ष्मीकांत कुदालकर, प्यारेलाल, अंकुर तिवारी, पेपॉन कलाकार : राजीव खंडेलवाल, सोहा अली खान, मृणालिनी शर्मा, मोहन कपूर, अनुराग कश्यपएक सुबह आप सोकर उठते हैं और पाते हैं कि अब बुखार नहीं है। एक सुबह आप सोकर उठते हैं और पाते हैं कि जो दर्द रात को टीसें मारकर सोने नहीं दे रहा था, अब गायब हो गया है। रात बहुत थककर सोने के बाद आप सुबह खुद को ऐसा ताजा महसूस करते हैं, जैसे बेकरी से निकली ताजा पावरोटी। किसी चिंता के कारण देर रात करवटें बदलने के बाद आप पाते हैं कि सुबह सूरज के साथ समस्या का हल भी निकल आया है। रात बहुत निराशा में बिताने के बाद जब सुबह होती है, तो बहुत सारी आशाएँ भी जाग जाती हैं। कोई बड़ा आर्थिक या शारीरिक नुकसान रात की नींदें भले ही उड़ा दे मगर एक सुबह आप पाते हैं कि आप उस झटके से उबर चुके हैं और जिंदगी जीने का नया रास्ता आपको मिल गया है। किसी अपने को हमेशा के लिए खोकर आप आँसू बहाते हुए सोते हैं और सुबह की रोशनी आपको कहती है कि जीवन रुकता नहीं है, रुकना चाहिए भी नहीं। आप गम भुलाकर खुद को जिंदगी के तेज बहाव में डालने के लिए तैयार कर लेते हैं और फिर जिंदगी के बहाव और उसकी रफ्तार का मजा लेते हैं। रातें कितनी ही मायूसी भरी क्यों न हों, सुबहें हमेशा उम्मीदों से पुर होती हैं। हर सुबह सेहत, ताजगी और नई उमंगों का तोहफा लेकर आती है।
फिल्म "साउंडट्रेक" का बहरा नायक खुद को दुनिया से दूर कर लेता है। एकांत में चला जाता है। सन्नाटे में अपनी खोई हुई श्रवण शक्ति ढूँढता है, उस श्रवण शक्ति को, जो उसके जीने का सहारा थी, प्रेरणा थी, जिंदगी का रस थी। ये उसके जीवन में गहरी काली रात का समय है। मगर रात के बाद सुबह आती ही है। एक सुबह वो कबूल कर लेता है कि उसकी श्रवण शक्ति अब लौटने वाली नहीं है और उसे आवाजों के खालीपन में ही जीना पड़ेगा। आवाजों का ये खालीपन सन्नाटा भी नहीं है। सन्नाटा तो उसे कहते हैं जब सुनने वाला आवाज की गैर मौजूदगी महसूस करता है। यहाँ तो आवाज़ या सन्नाटा महसूस करने का केंद्र ही नहीं है। वो चीज ही खत्म हो गई है जो आवाज या सन्नाटा महसूस करती थी। जिस सुबह नायक कबूल करता है कि अब उसकी सुनने की ताकत वापस आने वाली नहीं है, उसी सुबह उसकी जिंदगी का वास्तविक सबेरा होता है। वो इसके बगैर जीना सीखता है और पाता है कि जिंदगी में बहुत रस है। जब कोई एक इंद्री काम करना बंद कर देती है, उसकी ताकत दूसरी को मिल जाती है। एक होता है झूठा दिलासा। एक होता है झूठी आशाओं से उबर कर वास्तविकता को देखना, स्वीकार करना और उससे उबरने की कोशिश करना। "साउंडट्रेक" का नायक उस झूठी आशा से उबरता है और न सिर्फ अपनी दूसरी इंद्रियों से संगीत को महसूस करता है, बल्कि उनसे संगीत रचता भी है। साँप भी बहरा होता है, मगर वो कंपन को अपने जिस्म से और हवा में फैली गंध को अपनी दोहरी जीभ से महसूस करता है।
बहरहाल कई कारणों से ये फिल्म उस सुबह की याद दिलाती है, जिस सुबह आप लंबी बीमारी के बाद स्वस्थ हुए हों, बहुत रोकर किसी दुःख से उबरे हों या किसी चिंता से इस तरह मुक्त हुए हों, जैसे कभी कोई समस्या थी ही नहीं। मनोरंजन तो हर फिल्म देती है, मगर मनोरंजन के साथ-साथ ऐसा उजला अहसास बहुत कम फिल्मों को देखकर होता है। कथित आशावाद से भरी फिल्में भी जो नहीं दे पातीं, वो "साउंडट्रेक" अनजाने ही दे देती है।