हैलो डार्लिंग : फिल्म समीक्षा
निर्माता : अशोक घई निर्देशक : मनोज तिवारी संगीत : प्रीतमकलाकार : सेलिना जेटली, ईशा कोप्पिकर, गुल पनाग, जावेद जाफरी, चंकी पांडे, दिव्या दत्ता, असावरी जोशी, मुकेश तिवारी, सनी देओल (मेहमान कलाकार)केवल वयस्कों के लिए * 12 रील * 1 घंटा 45 मिनट रेटिंग : 1/5ज्यादातर ऑफिसेस में कुछ पुरुष बॉस ऐसे होते हैं जो अपने अधीन काम करने वाली महिलाओं/लड़कियों पर बुरी नजर रखते हैं। तरक्की व अन्य प्रलोभन देकर उनका यौन शोषण करते हैं। कुछ लड़कियों की मजबूरी रहती है। कुछ इसे तरक्की की ही सीढ़ी ही मानती हैं और कुछ ऐसी भी होती हैं जो लंपट बॉस को मजा चखा देती हैं।‘हैलो डार्लिंग’ की कहानी भी कुछ इसी तरह की है। एक अच्छी हास्य फिल्म की रचना इस थीम पर की जा सकती है, लेकिन अफसोस की बात ये है कि न इस फिल्म का निर्देशन अच्छा है और न ही स्क्रीनप्ले। कलाकारों से भी जमकर ओवर एक्टिंग कराई गई है, जिससे ‘हैलो डार्लिंग’ देखना समय और पैसों की बर्बादी है। हार्दिक (जावेद जाफरी) अपने अंडर में काम करने वाली हर लड़की पर बुरी नजर रखता है। चाहे वो उसकी सेक्रेटरी कैंडी (सेलिना जेटली) हो या सतवती (ईशा कोप्पिकर) और मानसी (गुल पनाग) हो। तीनों उसे सबक सिखाना चाहती हैं। एक दिन मानसी गलती से हार्दिक की काफी में जहर डाल देती है। हार्दिक कुर्सी से गिरकर बेहोश हो जाता है और तीनों लड़कियों को लगता है कि उनके जहर देने से उसकी यह हालत हो गई है। वे उसे अस्पताल ले जाती हैं। वहाँ फिर गलतफहमी पैदा होती है। उन्हें लगता है कि हार्दिक मर गया है। उसकी लाश को उठाकर वे समुद्र में फेंकने के लिए उठाती हैं, लेकिन इतनी बड़ी कंपनी में महत्वपूर्ण पदों पर काम करने वाली ये लड़कियाँ इतनी बेवकूफ रहती हैं कि दूसरे आदमी की लाश उठा लेती हैं।
इधर होश में आकर हार्दिक उनकी इस हरकत को कैमरे में कैद कर लेता है और उन्हें ब्लैकमेल करता है। लड़कियाँ उसे कैद कर लेती हैं। किस तरह से वह उनके चंगुल से निकलता है, यह फिल्म का सार है। दरअसल इस फिल्म से जुड़े लोग यही निर्णय नहीं ले पाए कि वे क्या बनाने जा रहे हैं। बॉस और लड़कियों से शुरू हुई उनकी कहानी थोड़ी देर में ही राह भटक जाती है और कही और जाकर खत्म होती है। ये लड़कियाँ बॉस को सबक सिखाना चाहती हैं, लेकिन उसे घर में कैद करने के बाद वे ऑफिस पर ज्यादा ध्यान देती हैं मानो उनका उद्देश्य ऑफिस को अच्छे से चलाना है। वे ये बात भूल जाती हैं कि हार्दिक को भी सही राह पर लाना है। फिल्म का क्लाइमैक्स भी बेहद कमजोर है और किसी तरह कहानी को खत्म किया गया है। कमजोर क्लाइमैक्स में सनी देओल को लाया गया है ताकि दर्शकों का ध्यान भटक जाए। स्क्रीनप्ले भी अपनी सहूलियत से लिखा गया है। मिसाल के तौर पर लड़कियों के घर कैद हार्दिक के हाथ फोन लगता है और बजाय पुलिस को फोन करने के वह घर पर फोन कर बीवी से बात करता है। उसकी बेवकूफ बीवी कुछ समझ नहीं पाती। इसके बाद भी उसे मौका था कि वह अपने दोस्त, ऑफिस या पुलिस को फोन कर अपना हाल बताता, लेकिन वह ऐसा कुछ नहीं करता। कई दृश्य ऐसे हैं जिन्हें देख लगता है कि हँसाने की पुरजोर लेकिन नाकाम कोशिश की जा रही है। कैरेक्टरर्स भी ठीक से स्थापित नहीं किए गए हैं। हार्दिक अपनी बीवी से क्यों भागता रहता है यह भी नहीं बताया गया है। हद तो ये हो गई कि हार्दिक की बीवी उसे ‘हार्दिक भाई’ कहकर पुकारती है। बिगड़े हुए पतियों को सुधारने वाला एक ट्रेक अच्छा था, लेकिन उसे ठीक से विकसित नहीं किया गया। एक निर्देशक के रूप में मनोज तिवारी निराश करते हैं। न उन्होंने स्क्रीनप्ले की कमजोरी पर ध्यान रखा और न ही दृश्यों को ठीक से फिल्मा पाए। पूरी फिल्म पर उनकी पकड़ कही नहीं दिखाई देती है।
जावेद जाफरी ने अभिनय के नाम पर तरह-तरह के मुँह बनाए हैं। ईशा कोप्पिकर और सेलिना जेटली में इस बात की प्रतियोगिता थी कि कौन घटिया एक्टिंग करता है। इनकी तुलना में गुल पनाग का अभिनय ठीक है। चंकी ने अभिनय के नाम पर फूहड़ हरकतें की हैं। दिव्या दत्ता ने पता नहीं ये फालतू रोल क्यों स्वीकार किया।इस फिल्म के निर्माता हैं अशोक घई, जो सुभाष घई के भाई हैं। सुभाष घई में भी इतनी हिम्मत नहीं हुई कि इस फिल्म के साथ अपना नाम जोड़ सके। लगता है कि प्रीतम ने अपनी रिजेक्ट हुई धुनों को कम दाम में टिका दिया। केवल पुराना सुपरहिट गीत ‘आ जाने जाँ....’ (रिमिक्स) ही सुना जा सकता है। फिल्म देखने से तो बेहतर है कि इसी सदाबहार गाने को एक बार फिर सुन लिया जाए।