उर्मिला को बचाने के लिए क्यों ज़ायद खान सिर्फ एक ही बार पुलिस के पास जाता है? उर्मिला, ज़ायद को अपने पति का मोबाइल नंबर क्यों नहीं देती? जब ज़ायद उर्मिला को बचा लेता है, इसके बाद उर्मिला अपने पति से फोन पर बात क्यों नहीं करती? लंदन जैसी जगह में आफताब के कैमरे हर जगह लगे हैं, क्या ये संभव है? संजय सूरी पुलिस की मदद क्यों नहीं लेता? ज़ायद को जब भी कार की जरूरत पड़ती है वह फौरन चुरा लेता है। उसे हर कार में चाबी लगी हुई मिलती है। उर्मिला को अपहरण कर आफताब जिस जगह रखता है उसमें बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ रहती हैं। उर्मिला फिर भी भागने का प्रयास नहीं करती। जब ज़ायद खान उर्मिला को बचाने पहुँचता है तो वहाँ आफताब की सहयोगी सोफिया उसे मिलती है। आधुनिक तकनीक से लैस सोफिया उसे बजाय बंदूक से मारने के महाभारत के जमाने के हथियार से मारने की कोशिश क्यों करती है?पटकथा लिखते समय हर पहलू पर बारीकी से गौर किया जाना चाहिए, जो नहीं किया गया है। फिल्म की सबसे बड़ी खासियत है कि इसकी लंबाई ज्यादा नहीं रखी गई है। विक्रम भट्ट ने फिल्म की गति बनाए रखी है, लेकिन जिस रोचक अंदाज में फिल्म शुरू होती है अंत तक पहुँचते-पहुँचते मामला गड़बड़ हो जाता है। विक्रम अपने कलाकारों से भी अच्छा काम नहीं ले सके।
ज़ायद खान को अच्छी भूमिका मिली है, लेकिन वे पूरी तरह से न्याय नहीं कर पाए। कई दृश्यों में उन्होंने ओवर एक्टिंग की है, खासकर तनुश्री के साथ वाले दृश्यों में। उर्मिला मातोंडकर का अभिनय भी फीका रहा। तनुश्री दत्ता की भूमिका में दम नहीं था। आशीष चौधरी और संजय सूरी का अभिनय ठीक है। आशीष और अमृता अरोरा वाला प्रेम प्रसंग फिल्म में नहीं भी होता तो कोई फर्क नहीं पड़ता। आफताब शिवदासानी खौफ पैदा नहीं कर सके।
इस तरह के फिल्म में गीत की सिचुएशन कम बनती है, फिर भी कुछ गीत रखे गए हैं, जिनमें दम नहीं है। पूरी फिल्म लंदन में फिल्माई गई है और प्रवीण भट्ट का कैमरावर्क अच्छा है। कुल मिलाकर ‘स्पीड’ ऐसी फिल्म है, जिसे नहीं भी देखा गया तो कोई फर्क नहीं पड़ता।