वैशाखी पूर्णिमा की बात है। सुजाता नाम की स्त्री को पुत्र हुआ। उसने बेटे के लिए एक वटवृक्ष की मनौती मानी थी। वह मनौती पूरी करने के लिए सोने के थाल में गाय के दूध की खीर भरकर पहुंची।
सिद्धार्थ वहां बैठा ध्यान कर रहा था। उसे लगा कि वृक्षदेवता ही मानो पूजा लेने के लिए शरीर धरकर बैठे हैं। सुजाता ने बड़े आदर से सिद्धार्थ को खीर भेंट की और कहा- 'जैसे मेरी मनोकामना पूरी हुई, उसी तरह आपकी भी हो।'
उसी रात को ध्यान लगाने पर सिद्धार्थ की साधना सफल हुई। उसे सच्चा बोध हुआ, तभी से वे 'बुद्ध' कहलाए। जिस वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ को बोध प्राप्त हुआ, उसका नाम है बोधिवृक्ष। जिस स्थान की यह घटना है, वह है बोधगया।
ईसा के 528 साल पहले की घटना है, जब सिद्धार्थ 35 साल का युवक था। बुद्ध भगवान 4 सप्ताह तक वहीं बोधिवृक्ष के नीचे रहे। वे धर्म के स्वरूप का चिंतन करते रहे। इसके बाद वे धर्म का उपदेश करने निकल पड़े।
बुद्ध का धर्म-चक्र प्रवर्तन
जब सिद्धार्थ को सच्चे बोध की प्राप्ति हुई, उसी वर्ष आषाढ़ की पूर्णिमा को भगवान बुद्ध काशी के पास मृगदाव (वर्तमान में सारनाथ) पहुंचे, वहीं पर उन्होंने सबसे पहला धर्मोपदेश दिया। भगवान बुद्ध ने मध्यम मार्ग अपनाने के लिए लोगों से कहा। दुःख, उसके कारण और निवारण के लिए अष्टांगिक मार्ग सुझाया। अहिंसा पर बड़ा जोर दिया। यज्ञ और पशु-बलि की निंदा की।
80 वर्ष की उम्र तक भगवान बुद्ध ने अपने धर्म का सीधी-सरल लोकभाषा में पाली में प्रचार किया। उनकी सच्ची-सीधी बातें जनमानस को स्पर्श करती थीं। लोग आकर उनसे दीक्षा लेने लगे।
बौद्ध धर्म सबके लिए खुला था। उसमें हर आदमी का स्वागत था। ब्राह्मण हो या चांडाल, पापी हो या पुण्यात्मा, गृहस्थ हो या ब्रह्मचारी- सबके लिए उनका दरवाजा खुला था। जात-पांत, ऊंच-नीच का कोई भेदभाव नहीं था उनके यहां।
बुद्ध की तपस्या
सुंदर पत्नी यशोधरा, दुधमुंहे राहुल और कपिलवस्तु जैसे राज्य का मोह छोड़कर सिद्धार्थ तपस्या के लिए चल पड़ा। वह राजगृह पहुंचा। वहां उसने भिक्षा मांगी। सिद्धार्थ घूमते-घूमते आलार कालाम और उद्दक रामपुत्र के पास पहुंचा। उनसे उसने योग-साधना सीखी। समाधि लगाना सीखा, पर उससे उसे संतोष नहीं हुआ। वह उरुवेला पहुंचा और वहां पर तरह-तरह से तपस्या करने लगा।
सिद्धार्थ ने पहले तो केवल तिल-चावल खाकर तपस्या शुरू की, बाद में कोई भी आहार लेना बंद कर दिया। शरीर सूखकर कांटा हो गया। 6 साल बीत गए तपस्या करते हुए। सिद्धार्थ की तपस्या सफल नहीं हुई।
शांति हेतु बुद्ध का मध्यम मार्ग
एक दिन कुछ स्त्रियां किसी नगर से लौटती हुईं वहां से निकलीं, जहां सिद्धार्थ तपस्या कर रहा था। उनका एक गीत सिद्धार्थ के कान में पड़ा- 'वीणा के तारों को ढीला मत छोड़ दो/ ढीला छोड़ देने से उनका सुरीला स्वर नहीं निकलेगा/ पर तारों को इतना कसो भी मत कि वे टूट जाएं।'
बात सिद्धार्थ को जंच गई। वह मान गया कि नियमित आहार-विहार से ही योग सिद्ध होता है। अति किसी बात की अच्छी नहीं। किसी भी प्राप्ति के लिए मध्यम मार्ग ही ठीक होता है।