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चित्त के मल

बुद्ध की वाणी

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भगवान बुद्ध कहते हैं कि चित्त के मलीन होने से दुर्गति अनिवार्य है। चित्त के मल ये हैं, जिन्हें 'उपक्लेश' भी कहा जाता है :-
1. विषमलोभ, 2. द्रोह, 3. क्रोध, 4. पाखंड, 5. अमर्ष, 6. निष्ठुरता, 7. ईर्ष्या, 8. मात्सर्य, 9. ठगना, 10. शठता, 11. जड़ता, 12. हिंसा, 13. मान, 14. अतिमान, 15. मद और 16. प्रसाद।

मन का खेल
श्रावस्ती के जेतवन में चक्खुपाल नामक के एक अंधे अर्हत भिक्षु थे। सुबह वे टहलते थे तो उनके पैरों के नीचे दबकर बहुत-सी बीरबहूटियाँ मर जाती थीं। कुछ भिक्षुओं ने यह बात भगवान बुद्ध से कही। वे बोले- 'भिक्षुओं, चक्खुपाल अर्हत भिक्षु है। अर्हत को जीवहिंसा करने की चेतना नहीं होती।'

भिक्षुओं ने पूछा- 'भंते! वे अंधे क्यों हो गए।'

भगवान बोले : चक्खुपाल अपने पूर्व जन्मों में एक बार वैद्य थे। उस समय उन्होंने एक स्त्री की आँखें फोड़ दी थीं। उसी का कर्मफल उनके पीछे लगा है।

मनो पुब्बंगमा धम्मा मनो सेट्ठा मनोमया।
मनसा चे पदुट्ठेन भासति वा करोति वा।
ततो न दुक्खमन्वेति चक्कं व वहतो पद॥

भगवान बुद्ध कहते हैं कि मन ही सारी प्रवृत्तियों का अगुवा है। प्रवृत्तियों का आरंभ मन से ही होता है। वे मनोमय हैं। जब कोई आदमी दूषित मन से बोलता है या वैसा कोई काम करता है तो दुःख उसका पीछा उसी तरह करता है, जिस तरह बैलगाड़ी के पहिए बैल के पैरों का पीछा करते हैं।

मनो पुब्बंगमा धम्मा मनो सेट्ठा मनोमया।
मनसा चे पसन्नेन भासति वा करोति वा।
ततो न सुखमन्वेति छाया व अनपायिनी॥

इसी प्रकार मन ही सारी प्रवृत्तियों का अगुवा है। प्रवृत्तियाँ मन से ही आरंभ होती हैं। यदि मनुष्य शुद्ध मन से बोलता है या कोई काम करता है, तो सुख उसी तरह उसका पीछा करता है, जिस तरह मनुष्य के पीछे उसकी छाया।

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