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(त्रयोदशी तिथि)
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बुद्धदेव और कर्मठ कृषक

गौतम बुद्ध का उपदेशामृत

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हमें फॉलो करें गौतम बुद्ध
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गौतम बुद्ध एक बार अव्वाली ग्राम गए। वहां उनका उपदेश सुनने के लिए हजारों ग्रामीण उपस्थित हुए।

ग्राम का एक दरिद्र किंतु कर्मठ कृषक भी उनके पास आया। उसने उन्हें प्रणाम किया। बुद्धदेव का उपदेशामृत पान करने की उसकी बड़ी इच्छा थी किंतु दुर्भाग्यवश उसका एक बैल खो गया था। वह उसी चिंता में था।

वह धर्मसंकट में पड़ गया कि वह बुद्धदेव का उपदेश सुने या बैल को ढूंढ़े। अंततः उसने सर्वप्रथम बैल ढूंढ़ने का निश्चय किया और वह वहां से चला गया।

संध्या समय बैल मिल जाने पर थका और भूखा-प्यास वह कृषक उसी स्थान से निकला। उसने पुनः बुद्धदेव के चरण छुए। इस बार उसने उनका उपदेश सुनने का ही निश्चय किया। बुद्धदेव ने कुछ क्षण उसके थके-मांदे चेहरे को निहारा, फिर भिक्षुओं से बोले, 'सर्वप्रथम इसे भोजन कराओ।'

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उसकी उदर-ज्वाला शांत होने पर बुद्धदेव ने उपस्थित जन-समुदाय को संबोधित किया। कृषक ने एकाग्र मन से उपदेश सुना और वह अपने घर चला गया।

उसके चले जाने पर बुद्धदेव ने अपने शिष्यों में इस आशय की कानाफूसी देखी कि उस कृषक के लिए बुद्धदेव ने विलंब कराया।

बुद्धदेव तब शांत स्वर में बोले, 'भिक्षुक गण, उस कृषक को मेरा उपदेश सुनने की तीव्र इच्छा थी किंतु इससे उसके कार्यों में बाधा आ पड़ती, अतः वह सुबह मजबूर होकर यहां से लौट गया था।

वह अपने लोक-कर्म के पालन हेतु सारे दिन भटका और क्षुधित होते हुए भी मेरा उपदेश सुनने चला आया। यदि मैं उस भूखे को उपदेश देने लगता, तो वह उसे ग्रहण न कर पाता।

याद रखो, क्षुधा के समान कोई भी सांसारिक व्याधि नहीं। अन्य रोग तो एक बार चिकित्सा करने से शांत हो जाते हैं, किंतु क्षुधा-रोग तो ऐसा है कि उसकी चिकित्सा मनुष्य को प्रतिदिन करनी पड़ती है।'

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