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जाति नैसर्गिक कैसी?

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, मंगलवार, 15 दिसंबर 2015 (12:19 IST)
बुद्ध के पवित्र वचन
भगवान बुद्ध जाति प्रथा के घोर विरोधी थे। इस बारे में उनके उपदेश इस प्रकार हैं:-
 
*जाति मत पूछ, तू तो बस एक आचरण पूछ। देख, आग चाहे जैसे काष्ठ से पैदा होती है। इसी प्रकार 'नीच कुल' का मनुष्य भी धृतिमान, सुविज्ञ और निष्पाप मुनि होता है।
*जीव-जन्तुओं में एक-दूसरे से बहुत-सी विभिन्नताएं और विचित्रताएं पाई जाती हैं और उनमें श्रेणियां भी अनेक हैं। इसी प्रकार वृक्षों और फलों में भी विविध प्रकार के भेद-प्रभेद देखने में आते हैं, उनकी जातियां भी कई प्रकार की हैं।
 
*मनुष्यों के शरीर में कोई भी पृथक चिह्न (लिंग), भेदक चिह्न कहीं देखने में नहीं आता। जीव-जंतु और वृक्षों-फलों जैसी विभिन्नताएं मनुष्यों में कहां हैं?
 
*जो मनुष्य गाय चराता है, उसे हम चरवाहा कहेंगे, ब्राह्मण नहीं। जो व्यापार करता है, वह व्यापारी ही कहलाएगा और शिल्प करने वाले को हम शिल्पी ही कहेंगे, ब्राह्मण नहीं।
 
*दूसरों की परिचर्या करके जो अपनी जीविका चलाता है, वह परिचर ही कहा जाएगा, ब्राह्मण नहीं। अस्त्र-शस्त्रों से अपना निर्वाह करने वाला मनुष्य सैनिक ही कहा जाएगा, ब्राह्मण नहीं।
 
*अपने कर्म से कोई किसान है, तो कोई शिल्पकार। कोई व्यापारी है, तो कोई अनुचर। कर्म पर ही यह जगत स्थित है। अपने कर्म से ही एक मनुष्य ब्राह्मण बन सकता है और दूसरा अब्राह्मण।
 
*प्राणि-हिंसक, चोर, दुराचारी, झूठा, चुगलखोर, कटुभाषी, बकवादी, लोभी, द्वेष और झूठी धारणावाले चाहे ब्राह्मण हों, चाहे क्षत्रिय अथवा वैश्य हों या शूद्र, मरने के बाद ये सभी दुर्गति को प्राप्त होंगे, नरकगामी होंगे।
 
*क्या केवल ब्राह्मण ही प्राणी-हिंसा, चोरी, दुराचार झूठ, चुगलखोरी, कटुवचन, बकवाद, लोभ और द्वेष से विरत होकर सुगति को प्राप्त हो सकता है तथा क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नहीं?
 
*वैररहित और द्वेषरहित होकर मैत्री की भावना ब्राह्मण सहित क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र भी कर सकता है।
 
*क्या ब्राह्मण ही मांगलिक स्नानचूर्ण लेकर नदी में मैल धो सकता है? क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नहीं?
 
*दो जुड़वां भाई हैं। एक तो अध्ययनशील और उपनीत, किन्तु दुराचारी और पापी है, दूसरा अन-अध्ययनशील, अन्‌-उपनीत, किन्तु शीलवान और धर्मात्मा है। इनमें से यज्ञ अथवा आतिथ्य में प्रथम भोजन आप किसे कराएंगे? उसी को न जो अनअध्ययनशील और अन्‌-उपनीत होते हुए भी शीलवान और धर्मात्मा है?
 
*माता-पिता के रज-वीर्य से जन्म लेने वाला जीव न क्षत्रिय होता है, न ब्राह्मण, न वैश्य होता है, न शूद्र।
 
*उच्चकुल वाला भी प्राणी-हिंसक, चोर, मिथ्याचारी, झूठा, चुगलखोर, कटुभाषी, बकवादी, लोभी और द्वेषी होता है, इसलिए मैं उच्च कुलीनता को श्रेय नहीं देता। साथ ही उच्च कुलीनता को 'पापीय' भी नहीं कहता क्योंकि उच्च कुलवाला मनुष्य भी अहिंसक, अचौर, मिथ्याचार-विरत, अद्वेषी आदि होता है।
 
*नीचकुलोत्पन्न भी इसी तरह हिंसक होता है और अहिंसक भी सच्चा होता है और झूठा भी, लोभी होता है और लोभ-विरत भी, द्वेषी होता है और अद्वेषी भी।
 
*जिस आश्रय को लेकर आग जलती है, वही उसकी संज्ञा होती है। काष्ठ से जलने वाली आग की संज्ञा काष्ठ-अग्नि और गोमय (उपले) के आश्रय से जलने वाली आग की संज्ञा गोमय-अग्नि होती है, किन्तु आग का काम इन सभी अग्नियों से लिया जा सकता है।
 
*यवन और कम्बोज तथा दूसरे भी सीमांत प्रदेशों में दो ही वर्ण होते हैं- आर्य और दास। मनुष्य वहां भी आर्य से दास हो सकता है और दास से आर्य। फिर इसका कोई अर्थ नहीं कि अमुक वर्ण में ही जन्मना श्रेष्ठ है।
 
*जो मनुष्य जातिवाद और गोत्रवाद के बंधन में बंधे हुए हैं, वे अनुपम विद्याचरण-संपदा से दूर ही हैं।

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