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बजट घाटा स्थापित सीमाएँ तोड़ेगा

अर्थ मंथन

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हमें फॉलो करें बजट घाटा
, रविवार, 24 फ़रवरी 2008 (18:06 IST)
- विट्ठल नागर

वर्ष 2008-09 के बजट पर भारी बम धड़ाका ही हो सकता है, क्योंकि केंद्रीय कर्मचारियों की संख्या अधिक है। इससे बजट में वेतन व पेंशन के प्रावधान की वृद्धि दर कुल कर राजस्व की वृद्धि दर की तुलना में अधिक बढ़ जाएगी इसलिए वित्त मंत्री पर नए संसाधन जुटाने की जिम्मेदारी भी आ जाएगी। वेतन आयोग की सिफारिशों की जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर भी आएगी और संभवतया इसीलिए केंद्र ने अपने करों की आय का 30.5 प्रतिशत भाग राज्यों को अंतरित करने का निर्णय लिया है जबकि अभी तक 29 प्रतिशत भाग ही राज्यों को अंतरित किया जाता था। इन दोनों से निश्चय ही बजट घाटे की खाई बढ़ेगी एवं राज्यों को फिजूलखर्ची करने एवं अधिक दरियादिल बनने के लिए प्रेरित करेगी

वित्तमंत्री पी. चिदंबरम ने बजट प्रस्तुत करने से पूर्व तीन बातें ऐसी कह दी हैं जिससे वर्ष 2008-09 के बजट का आकर्षण काफी कम हो गया है। उन्होंने पहली बात यह कह दी कि यूपीए सरकार का यह चौथा एवं अंतिम बजट होगा, क्योंकि 2009-10 का वर्ष आम चुनाव का वर्ष होगा इसलिए अगले वर्ष वे 'वोट ऑन अकाउंट्स' ही प्रस्तुत करेंगे।

लिहाजा वर्ष 2008-09 का बजट ही चुनावी बजट होगा और वर्ष 2009-10 में बजट घाटे को सीमित रखने की जिम्मेदारी नहीं रहेगी इसलिए ताजे बजट को रियायती बनाने का पूरा प्रयास करेंगे, पर बजट घाटा सभी सीमा लाँघ जाएगा।

हाँ देश की आर्थिक वृद्धि दर को बढ़ाने, अधिक पूँजी निवेश व एफडीआई (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) में अधिक वृद्धि को आकर्षित करने के लिए तथा शेयर बाजार को चुस्त-दुरुस्त बनाने के लिए कुछ नवोन्मेषी घोषणा करने के साथ उद्योगों को विदेशी पूँजी बाजार में घटी हुई ब्याज दर का लाभ उठाने के लिए विदेशी व्यावसायिक उधार (ईसीबी) पर लगी कुछ रोक हटा सकते हैं एवं विदेशी मुद्रा के परिवर्तनीय बॉण्ड जारी करने की सुविधा को आकर्षक बना सकते हैं, किंतु कुछ सीमा तक ही।

दूसरी बात यह कही है कि रेलवे मंत्रालय को वर्ष 2008-09 के रेल बजट में 9000 करोड़ रु. की व्यवस्था छठे वेतन आयोग की सिफारिशों के तहत करना पड़ सकती है। इतने बड़े प्रावधान से देश के रेलवे संजाल (नेटवर्क) को दुनिया का सबसे अमीर संजाल बनाने का सपना चूर-चूर हो गया है।

जब भारतीय रेलों का यह हाल है तो संभव है चिदंबरम के वर्ष 2008-09 के बजट पर भारी बम धड़ाका ही हो सकता है, क्योंकि केंद्रीय कर्मचारियों की संख्या अथिक है। इससे बजट में वेतन व पेंशन के प्रावधान की वृद्धि दर कुल कर राजस्व की वृद्धि दर की तुलना में अधिक बढ़ जाएगी इसलिए वित्त मंत्री पर नए संसाधन जुटाने की जिम्मेदारी भी आ जाएगी।

वेतन आयोग की सिफारिशों की जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर भी आएगी और संभवतया इसीलिए केंद्र ने अपने करों की आय का 30.5 प्रतिशत भाग राज्यों को अंतरित करने का निर्णय लिया है जबकि अभी तक 29 प्रतिशत भाग ही राज्यों को अंतरित किया जाता था। इन दोनों से निश्चय ही बजट घाटे की खाई बढ़ेगी एवं राज्यों को फिजूल खर्ची करने एवं अधिक दरियादिल बनने के लिए प्रेरित करेगी।

चिदंबरम ने तीसरी बात यह कही है कि वे अपने बजट में सामाजिक क्षेत्र यानी जनस्वास्थ्य व शिक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता देंगे एवं कृषि क्षेत्र के प्रावधान में अच्छी वृद्धि की जाएगी। कृषि व स्वास्थ्य के प्रावधानों में भले ही भारी वृद्धि हो जाए, किंतु फिर भी इन क्षेत्रों में काम कम ही होगा, क्योंकि वित्तमंत्री जानते हैं कि इन पर खर्च करने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर आती है और अधिकतर राज्य सरकारें केंद्र के धन को पूरा खर्च नहीं कर पातीं और प्रावधान डूब (लेप्स) में चले जाते हैं।

जब इन पर अधिक प्रावधान होगा तो उच्च शिक्षा क्षेत्र के लिए धन की कमी हो जाएगी, लिहाजा तकनीकी शिक्षा संस्थानों में अतिरिक्त भर्ती की सुविधाएँ नहीं बढ़ेंगी जो कि देश के लिए भारी चिंता की बात होगी। इस आग में घी का काम करेगी राजनीतिकों की यह माँग की खाद्य व कृषि सब्सिडियाँ बढ़ाई जाएँ।

ये सब्सिडियाँ पहले से ही हनुमान की पूँछ के समान बढ़ रही हैं और अब ये अधिक असहनीय बन जाएँगी एवं देश की आर्थिक वृद्धि दर को प्रभावित किए बगैर नहीं रहेंगी। क्योंकि इनसे सरकार का राजस्व खर्च बहुत अधिक बढ़ेगा एवं बुनियादी विकास के ढाँचों के लिए संसाधन की तंगी की स्थिति बनेगी और वित्तमंत्री के लिए उद्योगों व वैयक्तिक आयकरदाताओं को कर में अधिक राहत देना कुछ कठिन हो जाएगा।

देखा जाए तो आम जनता को इन सबसे कोई मतलब नहीं है। उन्हें न तो स्थूल आर्थिक घटकों के आकर्षक आँकड़े लुभाते हैं और न सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के बढ़े-चढ़े आँकड़े मन को बहलाते हैं। शहर व गाँवों में दो जून की रोटी जुटाने में दिन-रात मशगूल रहने वाला आम आदमी यही चाहता है कि महँगाई कम हो एवं कर्जों की ब्याज दर घटे।

ग्रामीण तो यही चाहेंगे कि उनके कर्जे माफ हों। नए बजट में कर्ज माफ करने के संबंध में कुछ घोषणा हो सकती है-इस वजह से बैंकों की फजीहत हो सकती है और सरकार 20-25 वर्ष की लंबी अवधि के बॉण्ड जारी कर बैंकों को कुछ लाभ पहुँचा सकती है। सरकार हर मामले में यही तो कर रही है।

पेट्रोल-डीजल आदि के भाव न बढ़ाने (सब्सिडी देने) से तेल कंपनियों को होने वाले घाटे की पूर्ति हेतु तेल बॉण्ड जारी करने, उर्वरकों पर दी जा रही सब्सिडी की पूर्ति के लिए उर्वरक कंपनियों को एवं खाद्य की सब्सिडी से होने वाली हानि की पूर्ति के लिए खाद्यान्न निगम को बॉण्ड जारी कर रही है। इन बॉण्डों का भार बजट में नहीं आता और उन पर केवल देय ब्याज ही बजट के खर्च में शुमार किया जाता है। ऐसी लुकाछिपी की कार्रवाई से बजट घाटे को अधिक समय तक सीमित नहीं रखा जा सकता है।

शहरी व ग्रामीण क्षेत्र की जनता यही चाहती है कि रोजगार के अवसर अधिक बढ़ें। किंतु ऐसे बजट से वित्तमंत्री न तो रोजगार के अवसर बढ़ा सकते हैं और न महँगाई व बैंक ब्याज दर घटाने की स्थिति निर्मित कर सकते हैं। क्योंकि अब आंतरिक कारणों से कम, किंतु बाहरी कारणों से मुद्रास्फीति व ऊँची ब्याज दर की स्थिति बनी हुई है। वैश्विक वित्तीय बाजार की जोखिमों से देश के मुद्रा बाजार की जोखिम बढ़ गई है, इसी तरह विश्वभर में खनिज तेल का खाद्यान्नों के भाव बढ़ने से देश में महँगाई में वृद्धि का खतरा बढ़ गया है।

वैयक्तिक आयकरदाता चाहेंगे कि कर मुक्त आय की सीमा 1.1 लाख से बढ़ाकर पाँच लाख की जाए, किंतु वित्तमंत्री के लिए ऐसा करना असंभव है। वे सीमा को बढ़ाकर 1.3 लाख कर सकते हैं। महँगाई के इस दौर में स्टैंडर्ड डिडक्शन (मानक कटौती) की सीमा में डेढ़-दो गुनी वृद्धि होना चाहिए, किंतु वे ऐसा नहीं करेंगे- कारण संसाधनों की तंगी।

इसी वजह से अन्य प्रत्यक्ष करों में कमी की संभावना कम है। आयकर व कंपनी करों पर प्रभावित अधिभार में रियायत की अधिक संभावना नहीं है। वित्तमंत्री यही कहेंगे कि केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड की सिफारिशों की प्रतीक्षा है। उद्योग, कंपनी कर को घटाने एवं एफबीटी टैक्स को रद्द करने की माँग कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि उद्योगों को यह स्वतंत्रता दी जाए कि वे एफबीटी या अधिभार में किसी एक को चुन लें। बैंकिंग केश ट्रांजेक्शन टैक्स से वर्ष में महज 460 करोड़ की आय होती है, किंतु इसे भी वित्तमंत्री रद्द करना पसंद नहीं करेंगे।

पूँजीगत लाभ कर (लंबी अवधि) की छूट एवं निवेशकों पर डिविडेंट टैक्स न लगने से देश के शेयर बाजार को भारी बढ़ावा मिला है एवं शेयरों की खरीदी-बिक्री से शेयर ट्रांजेक्शन टैक्स से सरकार की आय में भारी-भरकम वृद्धि हुई है। अभी थोकबंद सौदों एवं कंपनियों द्वारा बाजार से शेयर खरीदने की बोली पर यह टैक्स नहीं है। संभव है नए बजट में उन पर यह टैक्स लग जाए।

अभी शेयर बाजार डाँवाडोल है इसलिए एफआईआई को शॉर्ट सेलिंग की अनुमति न मिले, किंतु बजट में इसके संबंध में कोई घोषणा हो सकती है। इस तरह कंपनियों, व्यावसायियों व वैयक्तिक आयकर दाताओं के लिए यह बजट करीब-करीब यथास्थिति वाला ही साबित हो सकता है। इसमें सीमा शुल्क की दरें घटेंगी।

यह काम मजबूरीवश होगा, क्योंकि डब्ल्यूटीओ व पूर्वी एशियाई देशों से इस संबंध में वायदा किया गया है। उत्पाद शुल्क भी घटेगा कुछ वस्तुओं में महँगाई से राहत दिलाने के लिए एवं उद्योगों के कच्चे माल को सस्ता बनाने के लिए। निर्यातमूलक एवं विशेषकर श्रम आधारित उद्योगों को सेवाकर में या शुल्क की रकम मुजरा अदा करने की योजना में राहत मिल सकती है।

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