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महँगाई के मकड़जाल में जनता!

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शरद जैन

अर्थशास्त्र के सिद्धांत, अनुशीलन एवं विभिन्न देशों के अनुभव साक्षी हैं कि जब भी विकास दर बढ़ती है, उसी के साथ महँगाई भी आ जाती है, क्योंकि दोनों में चोली-दामन का साथ है। बढ़ी हुई विकास दर से आमजन की आमदनी में वृद्धि हो जाती है तथा उसका एक बड़ा भाग खरीदी करने के अभिप्राय से बाजारों में आ जाता है, जिससे मूल्यवृद्धि की बलवती संभावनाएँ प्रबल हो जाती हैं। उदाहरण के तौर पर चीन में पिछले वर्ष विकास दर 10.5 प्रश थी तथा महँगाई दर 5 प्रतिशत।

वर्तमान वर्ष में यह विकास दर 11.5 प्रश पर रहेगी, जबकि इसके साथ महँगाई दर 6.5 प्रश तक पहुँच चुकी है। आश्चर्यजनक रूप से भारत में इसका ठीक विपरीत प्रभाव देखने को मिलता है। पिछले वर्ष हमारे देश में विकास दर 8.5 प्रश थी, जबकि महँगाई दर 6.31 प्रश। इस वर्ष विकास दर 9 प्रश आँकी गई है, जबकि महँगाई का सूचकांक 3.93 प्रश का आँकड़ा दर्शाता है। भला ऐसी अर्थव्यवस्था पर जनता कैसे एवं क्यों कर विश्वास करे? जहाँ विकास दर के बढ़ने से महँगाई कम होती जाती है।

आज सरकार के अलावा सभी को यह स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि देश का विशाल मध्यम एवं निम्न आय वर्ग महँगाई से सर्वाधिक पीड़ित एवं ग्रसित है। रोजमर्रा की खाने-पीने की वस्तुओं की लगातार बढ़ती कीमतों से लेकर शिक्षा, स्वास्थ्य तथा आवास सभी निरंतर महँगे होते चले जा रहे हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि इन सभी पर अब सरकार की वर्तमान नीतियों के अनुरूप उद्योगपतियों, कॉर्पोरेट हाउसों, बड़े व्यापारियों तथा सटोरियों का एकाधिकार एवं नियंत्रण होता जा रहा है, जो कि इनके नित्य प्रति भाव बढ़ाते ही रहते हैं। परंतु ठीक इसके विपरीत केंद्रीय वित्तमंत्री का यह सार्वजनिक बयान कि वे बढ़ती विकास दर के चलते महँगाई रोकने में कामयाब हुए हैं, किसी भी प्रकार सफल, सार्थक एवं परिणाममूलक प्रतीत नहीं होता है।

वास्तविकता यह है कि सरकार द्वारा महँगाई वृद्धि का जो सूचकांक जारी किया जाता है, उसमें सम्मिलित की गई वस्तुओं में खाने-पीने की वस्तुओं का हिस्सा सिर्फ 20 प्रश ही रहता है, जबकि 80 प्रश उपभोक्ताओं के मासिक बजट में 75 से 80 प्रश हिस्सा खाने-पीने की वस्तुओं का ही निर्धारित रहता है तथा वह ही इनकी निरंतर बढ़ रही कीमतों से सर्वथा पिसता रहता है। इसके विपरीत चीन में महँगाई वृद्धि सूचकांक में खाने-पीने की वस्तुओं का हिस्सा 35 प्रश होने से विकास दर बढ़ने के साथ-साथ मूल्यवृद्धि के सूचकांक में भी वृद्धि दर्शा देता है।

हमारे देश में पिछले तीन वर्षों में अनाज, दालें, तेल, वनस्पति घी, दूध, मसाले तथा फल-सब्जियों के भावों में निरंतर वृद्धि हुई है तथा होती ही जा रही है। उदाहरणार्थ जो गेहूँ तीन वर्ष पूर्व 8 रुपए किलो पर बिकता था, आज वह 12 रुपए किलो पर मिल रहा है। दालें 30 रु. से बढ़कर 40 रु. प्रति किलो हो गई हैं तथा सोया तेल 50 रु. किलो से बढ़कर 65 रु. किलो पर पहुँच गया है। इसी स्तर से वनस्पति घी, दूध, मसाले तथा फल- सब्जियों आदि के दैनंदिन खाद्य पदार्थों के भाव में आश्चर्यजनक रूप से वृद्धि हुई है तथा निरंतर होती ही जा रही है।

महँगाई 35 से 40 प्रतिशत बढ़ी है, जबकि मूल्यवृद्धि सूचकांक 2.40 प्रश से आगे भी नहीं जा पाया है। इसे देख आम उपभोक्ता सरकार के महँगाई सूचकांक को अनर्गल, असत्य एवं हास्यास्पद मानने लगा है। जब तक महँगाई सूचकांक में खाने-पीने की वस्तुओं का भाग वर्तमान के 20 से बढ़ाकर 30 प्रश तक नहीं किया जाता, तब तक महँगाई सूचकांक का सही सही आँकड़ा सामने नहीं आ पाएगा। दूसरा जब तक सरकार गेहूँ की तरह खाद्य तेलों तथा दालों के आयात पर तटकर घटाकर शून्य तक नहीं कर देती, तब तक इनके बढ़ते भावों पर नियंत्रण संभव नहीं है।

हाल ही के वर्षों में शिक्षा तथा स्वास्थ्य सेवाएँ एवं आवास सुविधाएँ भी महँगी हुई हैं। इन क्षेत्रों का बड़े पैमाने पर व्यवसायीकरण किया जाना इसका प्रमुख कारण है। ये सभी क्षेत्र विदेशी पूँजी निवेश हेतु भी खोल दिए गए हैं या खोले जा रहे हैं। चूँकि निजी क्षेत्र का मुख्य उद्देश्य हर व्यवसाय में धन कमाना ही रहता है, इसी कारण निजी स्कूलों एवं निजी अस्पतालों में भारी फीस एवं टेरिफ वसूला जा रहा है।

अतः ऐसी शिक्षा एवं उपचार का लाभ मध्यम एवं निम्न आय वर्ग कदापि नहीं ले पाता है। इन सभी के लिए शासकीय शिक्षण संस्थाएँ एवं अस्पताल ही एकमात्र उपलब्ध साधन हैं, जो निम्न स्तर के हैं। उधर शहरों-नगरों में आवास हेतु सभी उपलब्ध भूखंडों पर बड़े भवन निर्माताओं का कब्जा हो गया है। मध्यम और निम्न वर्ग के परिवारों को आवास हेतु भूखंड प्राप्त होना अब उनके लिए दिवास्वप्न हो गया है।

केंद्रीय आवास मंत्रालय के अनुमानों के आधार पर आज देश में 27 मिलियन (2.7 करोड़) आवासों की भारी कमी है। इसमें 89 प्रश आवास या लगभग 24 मिलियन (2.4 करोड़) कम मूल्य (3 से 5 लाख रुपयों के बीच के) के आवासों की आवश्यकता है, जिसे मध्यम एवं निम्न आय वर्ग के परिवार खरीदना चाहते हैं।

वर्तमान में बड़े भवन निर्माताओं द्वारा छोटे एवं मध्यम शहरों में जो आवास (फ्लैट) बिक्री हेतु उपलब्ध कराए जा रहे हैं, वे 20 से 25 लाख रुपयों के बीच के हैं, जो मध्यम एवं निम्न आय वर्ग के परिवारों की खरीदी के दायरे में कदापि नहीं आते हैं।

इधर आवास हेतु बढ़ी हुई ब्याज दरों के कारण मेट्रो शहरों में अधिकांश मध्यम वर्ग ने आवास खरीदी को फिलहाल स्थगित कर दिया है। परिणामस्वरूप अप्रैल-नवंबर 2007 के बीच आवास ऋणों में 39 प्रश की कमी आ गई है। यह सब इसलिए हो रहा है कि आवासों की कीमतें मध्यम वर्ग की आमदनी की तुलना में अधिक तेजी से बढ़ी हैं।

वस्तुतः वर्तमान अर्थव्यवस्था रोजमर्रा की खाने-पीने की वस्तुओं की कीमतें घटाने में सफल नहीं हो पाई है। साथ ही देश का विशाल मध्यम एवं निम्न आय वर्ग आज अपनी भुगतान शक्ति के अनुरूप अच्छी शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवाएँ प्राप्त करने से सर्वथा वंचित है। इस वर्ग के लिए कम कीमतों के आवासों की उपलब्धता नगण्य है।

सरकार ने सिर्फ बढ़ती विकास दर तथा दोषयुक्त मूल्यवृद्धि सूचकांक के मकड़जाल में देश की समस्त जनता को उलझाकर रख दिया है। एक लब्ध प्रतिष्ठित एवं विख्यात अर्थशास्त्री के अनुसार अब तक देश की 77 प्रतिशत जनसंख्या बढ़ रही विकास दर के लाभों से सर्वथा वंचित रही है। विकास का यथार्थ लाभ मात्र 23 प्रतिशत अमीर वर्ग को ही प्राप्त हो रहा है, जो स्पष्ट रूप में सरकार की 'आम आदमी' के कल्याण की नीति के पूर्णतः विपरीत है। (लेखक एशियाई विकास बैंक के पूर्व आर्थिक सलाहकार हैं।)

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