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एक दि‍न, दि‍न में सपने देखने का

एक जनवरी : डे ड्रीमर्स डे पर विशेष

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घर में बड़े अक्सर यह कहते हैं दिन में सपने मत देखो, इससे इंसान आलसी हो जाता है। लेकिन मनोविश्लेषकों की मानें तो दिन में सपने देखना न केवल कार्य शक्ति को बढ़ाता है बल्कि इससे लोग अपने सपनों को पूरा करने के लिए मंजिल तक जाने का रास्ता तलाशते हैं।

डे ड्रीमर्स के बारे में मनोविश्लेषक मेधा गोरे कहती हैं, ‘डे ड्रीमिंग का मतलब दिन में सोते वक्त सपने देखना नहीं है। डे ड्रीमिंग में आप जागते वक्त कुछ ऐसी बातें सोचते हैं जो अपको सपने जैसी लगती हैं। आप उस वक्त अपने आस-पास की दुनिया से अंजान होते हैं और दूसरों के जगाने या बुलाने पर वैसे ही चौंकते हैं जैसे आप सपने में हों।’

उन्होंने बताया, ‘वैसे तो दिवा स्वप्न में ज्यादातर बातें रोजमर्रा के जीवन से जुड़ी होती हैं। मगर कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो अपने भविष्य को लेकर सपने देखते हैं। मनोविज्ञान के मुताबिक, दिन में जो अपने भविष्य को लेकर सपने देखता है और उसे पाने की कोशिश करता है उसे उसकी मंजिल जरूर मिलती है।

दिवा स्वप्न अगर अपने अतीत के बारे में हो तो वह कुछ नुकसान भी पहुँचा सकती है। इसलिए दिवा स्वप्न देखें मगर अपने आने वाले कल के बारे में।’ एक शोध के मुताबिक, दिवा स्वप्न देखने वाले लोग अपने भविष्य के लिए जो भी मंजिल चुनते हैं उसे वास्तविक जीवन में भी आसानी से तय कर लेते हैं। वे अपने सपनों में अपनी मंजिल के लिए रास्ते और उसकी कठिनाइयों को पहले ही तौल चुके होते हैं।

विश्वविद्यालय की परीक्षा में प्रथम स्थान पाने वाली नि‍हारिका का कहना है, ‘मेरे अभिभावकों को मुझसे हमेशा यह आशा रही कि मैं अपनी परीक्षा में टॉप करूँ। मगर स्नातक की पढ़ाई तक तो ऐसा नहीं हो पाया। मास्टर डिग्री में प्रवेश से पहले मैंने सोचा कि मुझे यूनिवर्सिटी में टॉप करना है। और मैने टॉप किया। मुझे लगता है कि डे ड्रीमिंग अगर भविष्य के बारे में हो तो बहुत अच्छा होता है।’

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मनोविश्लेषक संजीव त्यागी का कहना है, ‘डे ड्रीमिंग फायदेमंद है। खास तौर पर पढ़ाई कर रहे युवाओं और करियर के लिए काम कर रहे लोगों के लिए तो यह बहुत ही उपयोगी है। इससे आप आसानी से अपने भविष्य के बारे में सोच पाते हैं। अपनी मंजिल के लिए रास्ते बना पाते हैं। रास्तों के अच्छे बुरे परिणामों के बारे में आप पहले ही सोच लेते हैं और आसानी से उसे पार भी कर लेते हैं।’

19वीं शताब्दी में लोग दिन में सपने देखने वालों को आलसी कहते थे। उन्हें लगता था कि दिन में सपने देखने वाले काम नहीं करते हैं। लंबी बहस के बाद लोगों ने माना कि डे ड्रीमर्स आलसी नहीं होते।

19वीं शताब्दी में अमेरिका में टोनी नेल्सन ने ‘डे ड्रीमर्स डे’ मनाना शुरू किया। वर्ष 1960 में मनोविश्लेषकों की एक टीम ने इस पर शोध किया। शोध दल के प्रमुख जेरोम एल. सिंगर और जॉन एस. एंट्रोबस ने माना कि डे ड्रीमिंग इंसान को जीने की वजह देती है।

वर्ष 1980 में एक शोध में कहा गया कि 75 प्रतिशत डे ड्रीम रोजमर्रा के कामों के बारे में होते हैं। मगर 25 प्रतिशत डे ड्रीम मंजिल के बारे में होते हैं और वहाँ का रास्ता तय करने में मददगार होते हैं।

मनोविश्लेषक डॉक्टर त्यागी का कहना है, ‘दिवास्वप्न में आप अपने रास्तों में आने वाली परेशानियों के बारे में पहले ही सोच चुके होते हैं। इस कारण अगर परेशानियाँ आती भी हैं तो वे आपको तोड़ नहीं पातीं। आप उनसे आसानी से लड़ पाते हो।’ (भाषा)

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