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कमाने का कायदा लेकि‍न क्‍या फायदा...

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- अनुराग तागड़े

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जिंदगी में प्रसिद्धि‍ पैसा ही सबकुछ होता है या आत्मसंतुष्टी भी मायने रखती हैं। अक्सर इस प्रकार की बातें करने पर युवा इसे भाषणबाजी से ज्यादा कुछ नहीं मानते, क्योंकि उनके अनुसार पैसा मिलने के बाद जब व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ती कर लेगा, उसी के बाद आत्मसंतुष्टि का भाव आ पाएगा।

अगर व्यक्ति पैसा ही नहीं कमाएगा तब समाज में सेवा कैसे कर पाएगा और बिना पैसे के कुछ नहीं होता। दुनिया में कोई भी वस्तु फ्री में नहीं आती। इस प्रकार की बातों पर ध्यान देने पर आपको पता लगता है कि आज का युवा येन-केन-प्रकारेण अच्छे पैसे कमाना चाहता है और ढेर सारे पैसे।

वह पैसे कमाने के लिए मेहनत भी करता है और अच्छी नौकरी भी पा लेता है। इस पैसे से वह अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं की पूर्ती करता है। जो लोग यह मुकाम नहीं पाते, उनके भी सपने होते हैं और वे भी उन सपनों को पूर्ण करने के लिए जी जान लगा देते हैं। उन्हें सफलता मिलती है, पर जरा देरी से मिलती है।

मुद्दा यह नहीं है कि सफलता मिली या नहीं, बल्कि इस सफलता के बाद आत्मसंतुष्टि की बात उस युवा साथी को सुझती है। क्या वह पैसे कमाने के चक्र में नहीं फँस जाता, फिर समाज सेवा या समाज के प्रति योगदान देने की उसकी इच्छाओं का क्या होता है? दरअसल पैसे का लालच कहें या परिस्थितियों की मार कहें, युवा साथी चाह कर भी समाज को कुछ देने की अपनी इच्छा को पूर्ण नहीं कर पाते।

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एक छोटी-सी कहानी है, जिसमें एक छोटे से कारखाने का मालिक है। वह अकेला ही संपूर्ण बिजनेस देखता है और अपने यहाँ पर उसने 10 कर्मचारी रखे होते हैं। पैसा भरपूर कमा चुका रहता है, पर लगता है कि समाज के लिए कुछ किया जाए। मन में ख्याल आने के बाद वह एक कंपनी और खोलता है और अपने यहाँ के कुछ कर्मचारियों को वहाँ रखता है। इसके बाद वह क्षेत्र के कॉलेज में जाता है। वहाँ ऐसे विद्यार्थियों के इंटरव्यू लेता है, जो अपंग हैं।

कुछ समय बाद उसके यहाँ ऐसे कर्मचारियों की संख्या 5 से ज्यादा हो जाती है, जो अपंग हैं। कंपनी काफी अच्छी तरह से चलती है और उसकी लोकप्रियता बढ़ती जाती है। एक समय ऐसा आता है, जब वहाँ काम कर रहे कर्मचारियों में से 60 प्रतिशत से ज्यादा लोग विकलांग होते हैं। वह व्यक्ति यहीं नहीं रुकता, बल्कि इनमें से कुछ लोगों को लेकर वह एक और नई कंपनी आरंभ करता है।

कुछ समय बाद वह कंपनी का महत्वपूर्ण हिस्सा इन कर्मचारियों के नाम पर कर देता है और कहता है कि अब अपने दम पर कंपनी चलाओ। कुछ समय बाद इस प्रकार की दो कंपनियाँ वह आरंभ कर विकलांग साथियों को इसे चलाने के लिए कहता है। दोस्तों हम जिस समाज में रहते हैं, उसके प्रति भी आपका दायित्व बनता है।

आप जैसे बने, जितना बने, समाज में ऐसे लोगों को दे, जिन्हें इसकी खास जरूरत है। देते समय इस बात का ध्यान रखें कि पहले उसे पर्याप्त प्रशिक्षण दें और उसके बाद दायित्व सौंपे। आप देखिए इतना सुकुन मिलेगा, क्योंकि समाज में पैसे से पैसा बनाना सभी जानते हैं, पर इन पैसों से कुछ भला समाज का भी हो, ऐसा सोचने वाले काफी कम हैं।

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