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मेडिकल शिक्षा में गाँव की छलाँग

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- डॉ. भरत छापरवाल

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स्वास्थ्य मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं में से एक है इसलिए स्वास्थ्य सुविधाएँ नागरिकों का मूल अधिकार है। भारत का संविधान सरकार को यह जिम्मेदारी देता है कि वह देश के नागरिकों को चिकित्सा सेवा मुहैया कराए और उन्हें रोग मुक्त करे। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में चिकित्सा सुविधाएँ गुणवत्ता, संख्या, वितरण तथा मानव संसाधन की उपलब्धता के लिहाज से कतई संतोषजनक नहीं हैं।

पिछले कुछ सालों में स्वास्थ्य शिक्षा व प्रशिक्षण शहरों तक सीमित रहने और डॉक्टर केंद्रित तकनीक से चलने वाली व्यवस्था बन चुकी है। चिकित्सा शिक्षा पूरी शिक्षा प्रणाली का एक हिस्सा है, जो कि आज संकट की स्थिति में है और हम स्वास्थ्य व शिक्षा के क्षेत्र में अपर्याप्त निवेश की कीमत चुका रहे हैं।

यदि हम चिकित्सा सुविधाओं की स्थिति व उनकी गुणवत्ता की बात करें तो ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में एक स्पष्ट विभाजन दिखाई देता है। समृद्ध शहरों के बड़े अस्पतालों में जाँच-पड़ताल व भर्ती आवश्यकता से अधिक हो रही हैं तथा उपचार पहले से अधिक तकनीकों पर निर्भर है।

इन खामियों के बावजूद स्वास्थ्य सूचकों में प्रभावशाली परिवर्तन देखने को मिला है। शिशु मृत्यु दर 120 से घटकर 57 पर आ गई है, बच्चे को जन्म देने वाली महिलाओं की मृत्यु दर 840 से 300 हो चुकी है, जीवन प्रत्याशा 64 वर्ष हो गई है, जन्म दर 41 से 24 प्रति हजार हो गई है, कुल प्रजनन दर 6.6 से 2.9 हो गई है लेकिन इतनी तरक्की के बावजूद भारत का सामान्य स्वास्थ्य सूचकांक विकासशील देश के हिसाब से बहुत नीचे है तथा सामाजिक रूप से स्वीकार्य स्तर से भी बहुत नीचे है।

अब भी हमारा देश दुनिया में सबसे ज्यादा बोझ बीमारियों का झेल रहा है। भारत लगातार कुछ रोगों का विषम वैश्विक भार झेल रहा है। छूत की बीमारियों से होने वाली मौतों के आँकड़े दर्शाते हैं कि एक साल में 25 लाख वयस्क और 25 लाख बच्चे मारे गए। इससे पता लगता है कि संचारी रोगों से होने वाली जनहानि का परिमाण कितना अधिक है।

आज जो चिकित्सा शिक्षा दी जा रही है वह ऐसे अस्पतालों में काम करने के लिए है जहाँ कई किस्म की आधुनिक सुविधाएँ या विकसित मशीनें मौजूद हों। इस वजह से यह पढ़ाई करने के बाद चिकित्सक किसी ऐसी व्यवस्था में काम नहीं कर पाता जहाँ ये सब साधन न हों। कई अध्ययनों में ग्रेजुएट मेडिकल एजुकेशन के क्षेत्र में मौजूद कमियों की ओर इंगित किया जा चुका है। एक अध्ययन में यह खुलासा किया गया है कि संस्थानों में जो पढ़ाया जाता है और लोग जिन बीमारियों से जूझ रहे हैं, उसके बीच बेहद भिन्नाता है।

करीब दो तिहाई नए ग्रेजुएट यह महसूस करते हैं कि स्वतंत्र रूप से प्रैक्टिस करने के लिए उन्हें अपना कौशल निखारने की जरूरत है। 30 प्रतिशत विद्यार्थियों ने स्वतंत्र रूप से अपनी सेवाएँ देने में आत्मविश्वास की कमी जाहिर की। इनमें से एक तिहाई तो ऐसे थे जो किसी की निगरानी में भी अपनी सेवाएँ देने में खुद को सक्षम नहीं समझते थे।

अधिकतर विद्यार्थियों की ख्वाहिश थी कि वे ऐसे ही शहरी माहौल में अपना करिअर बनाएँ। पिछले दो दशकों में स्वास्थ्य सेवाओं को दुनिया भर में बिकाऊ वस्तु बना दिया है, यह उसी रुझान का असर है।

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