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हम प्रतिभाओं को तराशें या रट्टू रोबोट रचें?

शिक्षा प्रणाली में बदलाव कैसा हो

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-रत्‍नेश आचार्य
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अंकित (15) इन दिनों उदास और अवसादग्रस्त रहता है। कारण है उस पर लगा "पढ़ाई में कमजोर" होने का इल्जाम। क्यों न हो, जिस क्लास में चार बच्चों को परीक्षा में 90 प्रतिशत से ऊपर अंक मिले और एक तो 98 प्रतिशत तक ले आया, उस क्लास में अंकित ने "मात्र" 84 प्रतिशत अंक पाए! मम्मी-पापा ने सीधा-सीधा इल्जाम जड़ दिया,"तुम पढ़ाई पर ठीक तरह ध्यान नहीं देते, इसीलिए इतने कम नंबर आए। ऐसे कैसे बना पाओगे करियर?"

अंकित की स्थिति हमारी शिक्षा प्रणाली का आईना है। यहाँ शिक्षा नामक वस्तु को अंकों की तराजू पर तौला जाता है। "पर्सेंटेज" और "इंटेलिजेंस" समानार्थी शब्द हैं। जिसका जितना ज्यादा पर्सेंटेज बना, वह उतना ही ज्यादा बुद्धिमान होने का खिताब पाता है। और अच्छा पर्सेंटेज पाने के लिए आपको बनना होता है रट्टू तोता।

किसी ने ठीक ही कहा है कि भारतीय शिक्षा प्रणाली विषय की समझ रखने वाले इंसान नहीं गढ़ती, यह तो अधिक से अधिक "मेमोरी" वाले रोबोट गढ़ती है। आपको क्लास में पढ़ाई जाने वाली बातें सीखने और समझने की जरूरत नहीं है। आपको तो बस, ज्यादा से ज्यादा याद रखने की कोशिश करना है ताकि परीक्षा में उसे उगला जा सके और अच्छा पर्सेंटेज बनाया जा सके।

इस अफसोसनाक मंजर का नतीजा है हँसने-खेलने के दौर में तनाव और अवसाद से घिरे बच्चे। अभिभावकों, शिक्षकों और साथियों की ओर से दबाव झेल रहे बच्चे। वांछित नंबर न आने पर टूटते बच्चे... आत्महत्या जैसा कदम उठाकर परिवार की खुशियाँ छीन लेने वाले बच्चे। क्या तनाव, दबाव और रटाव का ही नाम शिक्षा पाना है? क्या शिक्षा ज्ञानार्जन की एक आनंददायी प्रक्रिया नहीं हो सकती?

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