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आखिर जिंदगी में क्या पाना चाहते हैं?

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-डॉ विजय अग्रवाल
हाल ही के एक सर्वे में यह पाया गया है कि दुनियाभर में सीईओ के पदों पर पहुँचे हुए लोगों की औसत आयु काफी कम हो गई है। पहले फायनेंशियल क्षेत्र में जहाँ कोई भी व्यक्ति लगभग 54-55 साल की उम्र में सीईओ बन पाता था, अब वह घटकर 42 से 45 साल हो गई है।

आईटी के क्षेत्र में तो कमाल ही हो गया है। वहाँ 37 से 40 वर्ष के बीच के युवा आईटी की बड़ी-बड़ी कंपनियों के सीईओ के रूप में काम कर रहे हैं। ऐसे में इन नए लड़कों के आगे भविष्य की कितनी बड़ी संभावना है, उसके बारे में एक मोटी-मोटी कल्पना तो की ही जा सकती है।

इससे कुछ महीने पहले एक पत्रिका ने सर्वेक्षण के आधार पर अपनी एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की थी। उस रिपोर्ट के तथ्य चौंकाने वाले थे और सच पूछिए तो मेरी अपनी मान्यता के विरुद्ध भी। मैं अभी तक यही मानकर चल रहा था कि आर्थिक उदारीकरण के बाद पूरी दुनिया में प्रतिस्पर्धा और निजीकरण का जो दौर चल रहा है, उसके कारण युवाओं में या तो खुद का काम करने के प्रति आकर्षण बढ़ा है या फिर निजी क्षेत्र की नौकरियों के प्रति।

लेकिन उस पत्रिका का निष्कर्ष यह था कि अब भी ज्यादातर युवा सरकारी नौकरियों को ही अपने लिए बेहतर मानते हैं। चूँकि यह बहुत ही प्रतिष्ठित पत्रिका की सर्वेक्षण रिपोर्ट थी, इसलिए उनके इस निष्कर्ष को सीधे-सीधे झुठलाया भी नहीं जा सकता था।

हो सकता है कि सचाई इसके कहीं बीच में हो। लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि ये दोनों रिपोर्टें दो अलग-अलग क्षेत्र के युवाओं की पसंद को व्यक्त कर रही हैं। उच्च और मजबूत आर्थिक पृष्ठभूमि के युवाओं के लिए निश्चित रूप से सरकारी नौकरियाँ अब उतने आकर्षण का केंद्र नहीं रह गई हैं। जब भारतीय समाज में सामंतवादी मूल्य बहुत गहरे तक धँसे हुए थे, तब सरकारी नौकरियाँ प्रतिष्ठा का प्रतीक मानी जाती थीं।

सरकारी अधिकारी वैसे तो कहलाते थे- सेवक, लेकिन मूलतः समाज उन्हें शाह की निगाह से ही देखता था और स्वाभाविक है कि उसे समाज से वैसा प्रतिदान भी मिलता था। इसलिए आश्चर्य नहीं कि आजादी के बाद के शुरू के लगभग 25-30 साल के दौर में बड़े-बड़े घरानों के युवक भी सिविल सेवा में आए।

अब इस वर्ग के युवाओं में ऐसा कोई मोह नहीं रह गया है, क्योंकि सामंतवादी चेतना धीरे-धीरे ध्वस्त हुई है और होती ही जा रही है। लेकिन मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग के युवक और खासकर हिन्दी क्षेत्र के युवकों की आँखों में अभी भी सरकारी गाड़ी की लालबत्ती की चकाचौंध मौजूद है। वे अभी भी इसे अधिकार और प्रतिष्ठा का पर्याय मानते हैं।

शायद उन्हें यह ज्यादा सुरक्षित भी लगता है। यदि आप एक बार सरकारी नौकरी में आ गए तो कम से कम 60 साल की उम्र तक तो वहाँ डेरा-डंडा जमा ही रहेगा। और इसके बाद भी इतनी पेंशन तो मिलती ही रहेगी कि श्मशान घाट तक पहुँचने में कोई दिक्कत न आए।

मित्रों, आप कौन-सी नौकरी करना चाहते हैं या जिंदगी में क्या करना चाहते हैं, यह पूरी तरह से इस बात पर निर्भर करता है कि आप आखिर जिंदगी में पाना क्या चाहते हैं? साथ ही इस बात पर निर्भर करता है कि आप उसे पाना कैसे चाहते है?

कुछ ही दिनों पहले आप ने एक खबर पढ़ी होगी कि जहाँ एक ओर आईआईएम से निकले हुए ज्यादातर युवाओं का सपना विदेश जाने का होता है, वहीं कुछ युवाओं ने विदेश से प्राप्त बेहतर आमंत्रणों को भी ठुकरा दिया। इनमें से एक लड़का तो ऐसा था जिसकी माँ छोटे-से शहर में चाय वगैरह बेचती थी।

उसने विदेशी नियुक्ति पत्र को दरकिनार करके देश में रेस्टॉरेंट की श्रृंखला खोलने का फैसला किया। सचमुच, आश्चर्य होता है... उसके इस साहसपूर्ण निर्णय पर और मन करता है उसके इस निर्णय के सामने मस्तक झुकाने का।

भले ही आज का आर्थिक दौर झंझावातों से भरा हुआ हो, लेकिन मुझे लगता है कि कुछ कर दिखाने का मौका तो तभी मिलता है, जब आँधियाँ चल रही हों। आप सब बहुत खुशकिस्मती हैं कि आप लोग एक ऐसे समय में अपने करियर के बनाने की प्रक्रिया से गुजर रहे है, जहाँ लाखों संभावनाएँ मौजूद हैं। बस, आपको चाहिए अपने दिल से साहस के एक उफनते हुए टुकड़े की और अपने दिमाग में एक नए आइडिए की। इन दोनों को मिला दीजिए, तो चमत्कार घटित हो जाएगा।

(लेखक पत्र सूचना कार्यालय, भोपाल के प्रभारी हैं।)

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