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छात्र संगठनों की बदलती दुनिया

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-रघु ठाकुर
भोपाल के बरकतउल्ला विश्वविद्यालय में 4 जून 2009 को अपने भारतीय विद्यार्थी परिषद की शाखा के नौजवानों ने कुछ माँगों को लेकर कुलपति का घेराव किया। माँगों के बारे में कोई विस्तृत रिपोर्ट समाचार पत्रों में नहीं छपी इसलिए उनके औचित्य के बारे में कुछ कहना संभव नहीं है। हो सकता है कि उनकी माँगें तार्किक हों परंतु जो घटनाक्रम घटा, वह चिंताजनक है। यह भी समाचारपत्रों में समाचार आया कि बाद में कुलपति की ओर से पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई गई। विश्वविद्यालय प्रशासन ने भी कुछ छात्रों को नोटिस दिए हैं।

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के बारे में मुझे कुछ जानकारी राजनीतिक संबंधों के अलावा कतिपय घटनाओं से हुई है। 1970 के दशक में सागर विश्वविद्यालय की विद्यार्थी परिषद की शाखा मित्रों ने मेरे साथ कतिपय छात्र आंदोलन में काम किया था। आपातकाल के दिनों में जब गिरफ्तार होकर मैं जेल में था तो वहाँ भी विद्यार्थी परिषद के कुछ छात्र गिरफ्तार होकर आए थे। बाद में 1977 में जनता पार्टी बनने के बाद रतलाम के साथियों के निमंत्रण पर लोहिया जन्म दिवस के कार्यक्रम में भाग लेने के लिए गया था। मेरे भाषण के दौरान विद्यार्थी और नौजवानों ने नारेबाजी भी की थी क्योंकि मैंने दोहरी सदस्यता का मुद्दा भी उठाया था।

मैंने उन नौजवानों को कहा कि वे शांति से भाषण सुनें और भाषण के बाद उनके साथ मैं बैठूँगा। मुझे स्मरण है कि मेरे ऐसा कहने के बाद नारेबाजी बंद की बल्कि पूरे एक घंटे तक मुझे सुना। बाद में हम लोग आधा घंटे साथ-साथ बैठे भी। उन्होंने मुझसे सवाल पूछे और मैंने उन्हें उत्तर दिए विद्यार्थी परिषद के ये नौजवान नारा लगाते थे "ज्ञान, चरित्र, एकता परिषद की विशेषता" उनमें से किसी नौजवान ने न तो अपनी मर्यादा तोड़ी और न कोई अभद्रता की बल्कि लोकतांत्रिक ढंग से गोलमेज परिषद जैसी चर्चा की।

  छात्र संघ का चुनाव दरअसल लोकतांत्रिक पद्धति की प्रथम शिक्षा है जिसमें मतदान करने वाले शिक्षित होते हैं और इसलिए वहाँ की राजनीति में अराजकता या हिंसा का कोई स्थान नहीं हो सकता।      
संघ के मुद्दे पर वे सहमत नहीं थे, परंतु तार्किक रूप से निरुत्तर जरूर हो जाते थे। इस चर्चा के बाद हम लोग असहमति के बावजूद खुशी-खुशी विदा हुए और उन्होंने सम्मानपूर्वक मझे विदा किया। एक वह विद्यार्थी परिषद थी और दूसरी वह विद्यार्थी परिषद है जिनके तीन प्रकार के रूप पिछले कुछ दिनों से क्रमशः उज्जैन, इंदौर और भोपाल में देखने को मिले।

उज्जैन में प्रो. सभरवाल की हत्या हुई। इसका आरोप विद्यार्थी परिषद के उन पदाधिकारियों पर लगा, जो छात्र नहीं थे, बल्कि छात्रों के पिता की उम्र के बराबर थे। वे सभी आज जेल में हैं। किसी छात्र संगठन के द्वारा किसी शिक्षक की हत्या क्या उस संगठन के हिंसक चरित्र का प्रमाण नहीं है? दूसरी घटना पिछले दिनों इंदौर में घटी, जब वहाँ नवनियुक्त कुलपति को कार्यभार लेते समय पुलिस को हस्तक्षेप करना पड़ा। यहाँ विद्यार्थी परिषद के लोग माँग कर रहे थे कि कुलपति स्थानीय इंदौर का ही होना चाहिए। वे भूल गए कि इसके पूर्व कुलपित डॉ. भागीरथ प्रसाद और उसके पूर्व के अनेक कुलपति इसी इंदौर के देवी अहिल्या विश्वविद्यालय में रहे हैं जो इंदौर के रहने वाले नहीं थे।

विश्वविद्यालय उच्च शिक्षा की संस्थाएँ हैं जहाँ विश्व स्तर के ज्ञान की कल्पना होती है, भले ही वह हो या न हो और इसलिए विश्वविद्यालय में स्थानीयता की कसौटी कहीं नहीं है। छात्र संघ का चुनाव दरअसल लोकतांत्रिक पद्धति की प्रथम शिक्षा है जिसमें मतदान करने वाले शिक्षित होते हैं और इसलिए वहाँ की राजनीति में अराजकता या हिंसा का कोई स्थान नहीं हो सकता। यह दुखद है कि छात्र संगठनों का अभियान किन्हीं बुनियादी सवालों को लेकर नहीं होता। दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के चुनाव में एनएसयूआई के अध्यक्ष पद के प्रत्याशी ने सार्वजनिक रूप से टीवी चेनल पर बयान देकर कहा था कि उन्होंने कितनी शराब, कितने पैसे की व्यवस्था की है।

भारत के पूर्व राष्ट्रपति स्व.केआर नारायणन कुछ समय के दिल्ली जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुलपति भी थे और इंदिरा गाँधी ताकतवर व कठोर महिला प्रधानमंत्री थी। नेहरू परिवार के और स्व.केआर नारायणन के रिश्ते जगजाहिर थे। कुलपति काल में जेएनयू के छात्रों ने हड़ताल की और कुछ माँगों को लेकर कुलपति नारायणन का घेराव किया। कुलपति नारायणन शिक्षा के अपने दृष्टिकोण और कसौटी के कारण छात्रों की माँगों को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे और छात्र अपनी माँग पर अड़े थे।हर बार स्व. नारायणन ने उनकी माँगें मानने से इंकार किया। अपनी शारीरिक पीड़ा के बाद भी पुलिस हस्तक्षेप से इनकार किया और छात्र अपनी माँग पर अड़े हुए थे।

तकलीफ के बावजूद पुलिस ने हस्तक्षेप से इंकार किया। छात्र भी भूखे थे, कुलपति ने कहा कि मेरे लिए मधुमेह की बीमारी के कारण खाना जरूरी है। क्या मैं खाना मंगाकर खा सकता हूँ? घेराव चलता रहा और कुलपति ने खुद भी खाना खाया और घेराव करने वाले सभी छात्रों को भी खाना खिलाया। कोई तनाव नहीं हुआ। साथ-साथ खाना खाते पुनः संवाद भी हो गया और समस्या का तार्किक हल निकल आया। यह एक पारिवारिकता थी जो शिक्षा जगत का अनूठा उदाहरण है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं, सागर विश्वविद्यालय के कुलपति स्व. एनएनपी शर्मा, स्व. डॉ. डब्ल्यूडी वेस्ट, स्व. ईश्वरचंद उन कुलपतियों में से थे जो निरंतर छात्रों से संवादरत रहते थे। हम लोग अपनी माँगों को लेकर आंदोलन करते थे परंतु कुलपति की निष्पक्षता संदेह के परे होती थी।

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