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दशा बदले तो सरकारी स्कूल सुधरें

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- जवाहर चौधरी

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हमारे सरकारी स्कूल प्रायः जर्जर भवनों वाले और कहीं-कहीं खंडहरनुमा हालत में हैं। कहीं जरा अच्छे भवन हैं भी तो उनका प्रायः अन्य कामों में उपयोग किया जाता है। मतदान केंद्रों के रूप में तो हम उनका उपयोग देखते ही हैं, कई सरकारी आयोजन भी इनमें होते हैं। इसके अलावा रावण दहन, पटाखे की दुकानें, नेताओं की भाषणबाजी, कथा-वाचन, प्रवचन-पंडाल, पुरानी कारों के बाजार, बिल्डिंग मटेरिल के ढेर, मेले, प्रदर्शन-रैली, त्योहार मनाने, नाच-गाने आदि सबके लिए सरकारी स्कूल सुलभ होता है।

आँधी-बारिश के समय ये स्कूल लोगों की शरणस्थली के काम भी आते हैं। पहुँच वालों की शादी-ब्याह के आयोजन के लिए यही श्रेष्ठ स्थल होते हैं। ऐसे में सरकारी स्कूल शिक्षा के लिए पवित्र स्थान कैसे बने रह सकते हैं!

योग्य शिक्षकों और साधनों का अभाव दूसरा बड़ी समस्या है जिससे सरकारी स्कूल, प्रायवेट स्कूलों से पिछड़ते हैं। इसे केवल बजट का मामला नहीं मानना चाहिए। सरकारी स्कूल के शिक्षकों से तमाम गैरशैक्षिक कार्य लिए जाते हैं। यह समझना होगा कि शिक्षक बेगार करने वाला तबका नहीं है। कहीं-कहीं पचास-साठ बच्चों के स्कूल में आवश्यकता से बहुत अधिक शिक्षक होते हैं तो कहीं-कहीं इनकी संख्या न्यूनतम से भी कम होती है।

कहा जाता है कि वेतन का बोझ सरकारी स्कूलों की हालत सुधरने नहीं देता है। दरअसल हमारा शिक्षा का बजट ठीक नहीं है। धन की कमी तो प्रायवेट स्कूलों में भी होती है किंतु वहाँ की कार्य-संस्कृति और मैनेजमेंट बेहतर है।

सरकारी स्कूलों की बुरी दशा के पीछे इसका सरकारीपन और दोषपूर्ण प्रबंधन भी है। कई जगह स्थानीय विकास-समितियाँ बनाई गईं हैं किन्तु इसके जरिए राजनीति घुसने लगी है और स्कूल छुटभैये नेताओं के उपकरण बनते जा रहे हैं। सरकारी स्कूलों को इनके प्रभाव से मुक्त करने की जरूरत है। अनेक गाँवों में तो शिक्षकों को वेतन के लिए सरपंच या प्रभावी नेताओं की चिरौरी करना पड़ती है।

अगर प्रायवेट स्कूलों के साथ दो-दो सरकारी स्कूलों को नत्थी कर दिया जाए तो उनके चुस्त मैनेजमेंट का लाभ इन्हें भी मिलेगा। इसके अलावा समाज में बड़ी संख्या में सेवानिवृत्त शिक्षाविद् मौजूद हैं जिन्हें पेंशन के रूप में पंद्रह-बीस हजार रुपए तक मिल रहे हैं। यदि उन्हें दो-तीन स्कूलों का प्रभारी बनाकर उनकी प्रतिभा का उपयोग किया जाए तो अच्छे परिणाम मिल सकते हैं और उन्हें भी लगेगा कि वे अभी भी सक्रिय, उपयोगी और महत्वपूर्ण हैं।

देश भर में बड़े उद्योग और व्यावसायिक संगठन सरकारी योजनाओं, बैंकों आदि से सुविधा प्राप्त करते हैं। उन्हें सबसिडी, टैक्स रिबेट, लोन वगैरह का लाभ मिलता है। इन 'बड़े-बड़ों' में कई पर करोड़ों का टैक्स बकाया है लेकिन वे समाज में शिव-नंदी की तरह बेफिक्र घूमते हैं। यदि इन डिफाल्टरों को दो-तीन स्कूल गोद लेने के लिए प्रेरित या विवश किया जाए तो कुछ अच्छे परिणाम अवश्य मिलेंगे।

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