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परिवर्तन जरूरी है

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- निर्मला भुराड़िया
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सेंट्रल बोर्ड ऑफ सेकंडरी एजुकेशन ने स्कूलों से अनुरोध किया है कि वे अपने कक्षा नौ के विद्यार्थियों से परीक्षा के तीन घंटे पूरे होते ही पेपर न छीनें। परीक्षा लिखने के समय को थोड़ा लचीला बनाएँ और विद्यार्थी चाहे तो तय से तीस मिनट ऊपर तक का समय उसे दे दिया जाए। यह निर्णय इसलिए कि हर विद्यार्थी की प्रश्न-पत्र हल करने की गति में थोड़ा अंतर होता है। शिक्षाविदों और विद्यार्थियों दोनों ने ही इस निर्णय की सराहना की है।

यह ठीक ही है। गति का अपना महत्व है, समय से काम पूरा करना भी जरूरी है, मगर ज्ञान से ज्यादा महत्वपूर्ण गति नहीं है। जिसने सबसे पहले पेपर लिख लिया और परीक्षा हॉल से बाहर निकल गया वह सर्वाधिक मेधावी छात्र नहीं होता। इसी तरह केवल अच्छे अंक ज्ञान और सृजन से ऊपर नहीं होते। एक विद्यार्थी का व्यक्तित्व कई चीजों से मिलकर बनता है और निखरता है। रटी हुई चीजें तीन घंटे में उगलकर किसी भी प्रतिभा का फैसला नहीं हो सकता। इसीलिए विद्यार्थी की सतत मूल्यांकन पद्धति भी शुरू की गई है। इससे कई स्कूलों में विद्यार्थी रंगमंच, पुस्तक-पढ़ना, खेलना आदि गतिविधियों में अधिक संलग्न होने लगे हैं। यह एक अच्छी बात है।

कहा जाता है बचपन हर गम से बेगाना होता है। बचपन बेफिक्र होता है। मगर भारत में पिछले दशकों में बचपन सर्वाधिक दबावकारी आयुकाल हो गया है। बच्चा दो-ढाई साल का भी नहीं होता कि उस पर तरह-तरह की चीजें सीखने का दबाव पड़ने लगता है। पिछले दिनों केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने दिल्ली में स्कूलों के प्रधानाचार्यों के साथ मीटिंग की और यह सहमति बनाई गई कि प्री-स्कूल यानी कक्षा पहली से पहले की कक्षा के लिए बच्चों का दाखिला चार साल की उम्र से पहले नहीं होना चाहिए।

कक्षा पहली में दाखिले की उम्र भी छः साल करने की बात चल रही है। यह सब बच्चों का बचपन बचाने और उन्हें आज्ञाकारी रोबोट बनाने की बजाय उनकी नैसर्गिक प्रतिभा विकसित होने देने के संदर्भ में उठाए गए कदम लाभकारी होंगे। मगर हमारे यहाँ अक्सर अच्छे परिवर्तनों को अपनाते वक्त भी सामाजिक इच्छाशक्ति जवाब दे जाती है।

देखना यह है कि शिक्षकों और पालकों को ये बातें कितनी गले उतरती हैं। वो पालक जो एक खास तरह की मानसिकता के चलते बच्चों को रट्टू तोता बनाने पर आमादा होते हैं वे और प्राइवेट प्ले-स्कूल चलाने वाले इसमें कुछ रास्ते और गलियाँ निकालने की कोशिश जरूर करेंगे। कानून देश के नागरिकों की भलाई के लिए बनते हैं जैसे वाहन चलाते वक्त मोबाइल पर बात न करना।

मगर आपको वाहन चलाते हुए कान और कंधे के बीच मोबाइल फँसाए बात करते लोग बहुतेरे मिल जाएँगे। वे बड़े खुश होते हैं कि वाह पुलिस को क्या चकमा दिया! यह वैसा ही है जैसे कि कोई देख न रहा हो तब कुल्हाड़ी से अपना पैर काटकर हम बहुत खुश हों।

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