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परीक्षा में विलीन होती शिक्षा

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-चैतन्य प्रकाश
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प्रतिस्पर्धा का अपना एक गणित है। परिश्रम और प्रतिभा के अलावा परीक्षा उस गणित का एक हिस्सा है, लेकिन शिक्षा उसमें उलझकर रह गई है। वहाँ प्रश्न पत्रों के निर्माण से लेकर उत्तर-पुस्तिकाओं की जाँच तक का काम एक ऐसी यांत्रिक प्रक्रिया में कसा-बँधा है कि जिसे ढर्रा कह देने का मन करता है। यह यांत्रिकता विद्यार्थी के उचित एवं न्यायपूर्ण मूल्यांकन अथवा प्रोत्साहन के प्रति जरा भी सजग और संवेदनशील नहीं है।

वर्ष में 365 दिन होते हैं, विश्वविद्यालयों में 180 दिन पढ़ाई की माँग आए दिन होती है। पढ़ाई के दिन सैकड़े के आँकड़े को मुश्किल से छू पाते हैं। मगर ये पढ़ाई के दिन भी महत्वपूर्ण नहीं बन पाते हैं। छात्र कक्षाओं में नहीं जाते हैं और शिक्षक कक्षाओं में नहीं आते हैं- जैसी शिकायतें अब सामान्य होती जा रही हैं।

  ग्रेडिंग प्रणाली से ट्यूशन का बाजार कमजोर पड़ेगा और परीक्षा में सफलता की गारंटी का धंधा करने वालों की विकृत भूमिका भी समाप्त होगी।      
इसलिए महत्वपूर्ण हो जाते हैं वे चार या पाँच सप्ताह जिनमें परीक्षाओं की तिथियाँ होती हैं और धीरे-धीरे वे पाँच या सात दिन महत्वपूर्ण हो जाते हैं जिनमें परीक्षाएँ होती हैं। फिर महत्वपूर्ण हो जाते हैं सिर्फ वे पाँच प्रश्न जिनके हल करने से अधिकतम अंक मिल जाते हैं।

स्थिति यह है कि कक्षा 10 की पहली बोर्ड परीक्षा में 15-16 साल के करोड़ों बच्चे विफल घोषित किए जाते हैं (बोर्ड की परीक्षा के परिणाम सारे देश में लगभग 50 प्रतिशत ही होते हैं) और वे जीवनभर इस अपमानजनक स्थिति का बोझ ढोते रहते हैं। यही स्थिति तृतीय श्रेणी या उससे भी कम अंक पाने वाले बच्चों की होती है। बड़े-बड़े शहरों में तो 80-90 प्रतिशत अंक लाने वाले बच्चे भी अपमानित होते हैं क्योंकि अच्छे स्कूलों में दाखिला मिलने के लिए इतने अंक भी पर्याप्त नहीं होते।

अंकों की जगह ग्रेडिंग प्रणाली लाने के सुझाव आते रहे हैं। जानकारों का कहना है कि ग्रेडिंग प्रणाली से ट्यूशन का बाजार कमजोर पड़ेगा और परीक्षा में सफलता की गारंटी का धंधा करने वालों की विकृत भूमिका भी समाप्त होगी। ऐसा कहा जाता है कि तैंतीस प्रतिशत की अंक प्रणाली हमारे देश में विदेशी शासकों द्वारा लाई गई थी और उन्होंने खुद इसे वर्षों पूर्व छोड़ दिया है।

शिक्षक-मूल्यांकन का सवाल भी इन दिनों बड़ी शिद्दत से उभरा है। शिक्षा को सीखने पर आधारित बनाने और सिखाने पर जोर कम करने की बात भी एक आशापूर्ण आलोक है। प्रख्यात चिंतक एवं साहित्यकार रोमा रोलां ने कहा था कि "सत्य उनके लिए है, जिनमें उसे सह लेने की शक्ति है।" शिक्षा-जगत को इस शक्ति का सृजन करना होगा तथा व्यापक परिवर्तन के लिए तैयार होना होगा।

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