-हर्षवर्धन पंडित
वक्त के साथ, आगे बढ़ने को दौड़ता आदमी। जो तेज रफ्तार में अपने आसपास की दृश्यावली को धुँधला कर देता है। सफलता की ऊँची सीढ़ी पर चढ़ते हुए जरा कुछ देर ठहरकर आत्मनिरीक्षण की कसौटी पर भी स्वयं को कसें, तभी असली ऊँचाइयों को छू सकेंगे।
आत्मनिरीक्षण की कसौटी पर स्वयं के आकलन हेतु कुछ बातें अपनाएँ-
आँकिए खुद को...
बच्चों के पार्क में रेल होती है, वृत्ताकार पटरियों पर दौड़ती हुई। दिनभर में भले ही यह बीसियों चक्कर लगा ले पर पहुँच कहीं नहीं पाती। इसीलिए आँखें मूँदे चलते (या दौड़ते) रहना बेमानी है। सही तरीके से आगे बढ़ने के लिए रुकना और यह देखना लाजमी है कि हम अबतक कितना चल पाए हैं और कितने वक्त में।
अपना ही इल्म नहीं...
खुद को खुद के बाँटों से, खुद ही के तराजू में तौलने की कवायद है आत्मनिरीक्षण। 'इंट्रोस्पेक्शन' इसका अँगरेजी पर्याय कहा जा सकता है। हम सबके भीतर पसरी है, हमारे ही द्वारा रची गई दुनिया। इसी भीतरी दुनिया को बिसराकर, हम बाहरी दुनिया को कंठस्थ करते रहते हैं- औरंगजेब की मौत से लेकर बुश के फिर गद्दीनशीन होने तक की या इसके आगे-पीछे की घटनाएँ।
आदम की औलादें 'इनसाइक्लोपीडिया' हो जाने की जुगत में हैं, पर विरोधाभास यह कि हमें अपना ही पूरा-पूरा इल्म नहीं! यही अज्ञान दुखों की नींव है।
मन का बहीखाता...
हर मन में है एक बहीखाता, लाल जिल्द वाला। इसके पहले पन्नो पर मँडा है- हल्दी का सातिया। इसमें दर्ज हैं- हमारे नकद-उधार, नफे-नुकसान, मूल-सूद, भूल-चूक, लेनी-देनी...! मन पक्का बनिया है। जिंदगी के अगले कारोबार में फायदे के लिए पलटने होंने इस बहीखाते के पिछले पन्नो, गिननी होगी अब तक के कारोबार में कमाई गई (या गँवाई गई) रकम।
विचारों की 'सुनामी' लहरें...
खुद को आँकने की प्रक्रिया का पहला पड़ाव है- फुर्सत। न हो तो निकालिए। फिर अपने बिस्तर पर, छत पर, आज ही खिले गुलाब के पास या पिता द्वारा लगाई गई चमेली के नीचे बैठ जाइए। गरज यह कि जगह खामोश हो। अब आँखें मींचिए और अपने भीतर उतर जाइए आहिस्ता-आहिस्ता।
आपको विचारों का एक तालाब दिखाई दे रहा है- शांत। इसके पानी में कोई हलचल नहीं। पास ही पड़ा ढेला उठाइए और फेंक दीजिए पूरी ताकत से पानी में। पानी में तरंगें उठने लगी हैं- विचारों की सुनामी लहरें! इस तूफान को उठने दीजिए। डुबो दीजिए सब विचारों को इसमें। यह खुद का विध्वंस रचने जैसा है। आखिर प्रलय जरूरी है पुनर्निर्माण के लिए।
विचारों के तालाब के पास एक परदा है। ज्यों-ज्यों तरंगे उठ रही हैं तालाब में, त्यों-त्यों परदे पर दृश्य तैरने लगे हैं। इस फिल्म का निर्माण आप ही के बैनर तले हुआ है। इसमें आप ही नायक हैं, आप ही निर्देशक। परंतु फिलवक्त आप महज दर्शक हैं- दर्शक के सिवा और कुछभी नहीं! अब पूरी तन्मयता से आप परदे की ओर देख रहे हैं।
'सुनामी' लौट रही है। विचारों का ज्वार उतर रहा है। 'काउंटडाउन' शुरू हो गया है- 10...9...8...7...! '0' आने पर आप पूरी तरह हल्के हो चुके हैं। अब आप विचारों से खाली हैं, एकदम खाली। बस आत्मनिरीक्षण की यही सही स्थिति है।
चावल विचारों के...
अब आपके आगे विचारों की एक ढेरी पड़ी है। इसमें जमा हैं असंख्य विचार- जाने-अनजाने, परिचित दिखने वाले, चकित कर देने वाले विचार। आप भौंचक हैं, दाँतों तले उँगलियाँ दाब रहे हैं- अरे! इतने सारे विचार थे मन में! तो विचारों की ढेरी आपके सामने पड़ी है।
अब आप 'दादी माँ' हैं- मटमैले रंग की साड़ी पहने, आँखों पर ऐनक चढ़ाए, जाड़े की मीठी धूप में 'आलथी-पालथी मारकर बैठी चावल बीनती दादी माँ! अब आपको तय करना है कि कौनसे विचार आपके लिए सार्थक हैं और कौनसे निरर्थक। कंकड़, टुकड़ी, साबुत विचारों केचावल। बीनने में पूरा वक्त लीजिए। अवांछित कंकरों को जमीन में गाड़ दीजिए और वांछित विचारों को हृदय की 'हार्ड-डिस्क में 'सेव' कर लीजिए।
तन-मन का माइलेज...
ऊपर बताई गई कसरत आत्मनिरीक्षण कही जा सकती है। यह वैज्ञानिक नियंताओं की मानिंद सार्वत्रिक, सामूहिक या सार्वजनिक नहीं है। यह पूरी की परी वैयक्तिक है- सबकी अपनी-अपनी। यह इसी क्रम में हो, ऐसा भी कोई लिखित नियम नहीं।
पर खुद की तरक्की के लिए है बेहद जरूरी। आत्मनिरीक्षण आपको माँजता है। यह खुद का वैचारिक विध्वंस कर, खुद को फिर रचने का शगल है। इसमें आप खुद ही अपना प्रतिबिंब रचते हैं। पर खुद के चेहरे पर चस्पा मुँहासों, झाइयों, कीलों और इनके दाग निरखने के लिए, अक्स रचते समय पूरी ईमानदारी और तटस्थता लाजमी है। इसमें अपको खुद के लिए 'नामवरसिंह' होना है। यह आपके अब तक के सफर में तन और मन का 'माइलेज' दिखाता है।
यूँ खुद का निरीक्षण कोई आसान काम भी नहीं है। यह बालिश्तों से अर्श नापने जैसा कोई काम है। एकदम से सीखी जा सकने वाली या एक दफा शुरू होकर खत्म हो जाने वाली प्रक्रिया भी नहीं। यह लगातार रटने वाला पहाड़ा है, साँसों के आखिरी मुकाम तक चलने वाला सफर,जिसमें सुधार की गुंजाइश अंजाम तक बनी रहती है।
शेखचिल्ली, सिकंदर और सपने...
आज हमें सब इंस्टेन्ट चाहिए- फिर वह कॉफी हो या कामयाबी। हम रोज नए-नए सपने जनते हैं। इन्हें पूरा करने के लिए आत्मनिरीक्षण अनिवार्य है। तो रचिए कुछ स्वप्न और ठहरा लीजिए वक्त इन्हें पूरा करने हेतु। सिकंदर बनने के लिए शेखचिल्ली होना जरूरी है।
सपनों को पूराकर सकने की कूवत रखने वाले शेखचिल्ली ही सिकंदर हो सकते हैं। सपने की फाँकें कीजिए, फिर टुकड़ा-टुकड़ा कर इन्हें सच करते हुए जोड़िए। छोटे-छोटे 'गोल' 'सेट' कर बड़ा विजयी गोल दागिए।
जिंदगी की 'निसरनी' पर लगाते जाइए कर्मों की एक सीढ़ी और इस पर चढ़कर तोड़ लाइए पसंदीदा तारे। खुद को आँकते रहने की प्रक्रिया को दोहराते रहिए। आँकिए खुद को, खुद के उजाले में भाँपिए बिम्ब और नापिए कदम।