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सबके लिए सुलभ नहीं रहेगी शिक्षा

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-मृदुला सिन्हा

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साठ से ऊपर की उम्र के स्त्री-पुरुषों के सामने शिक्षक की जो छवि उभरती थी, वह मामूली धोती, कुर्ता पहने कंधे पर फटा अंगोछा डाले और हाथ में छाता लिए एक मामूली व्यक्ति की है। विद्यार्थी की रूपरेखा भी इससे मिलती-जुलती। माँ के हाथ का सिला कपड़े का झोला (अक्सर पिताजी की पुरानी कमीज का) उसमें एक-दो पुस्तकें, स्लेट-पेंसिल और टूटे-फूटे पुराने कमरों वाला स्कूल। गोबर से लिपी-पुती जमीन पर अपने घर से लाई चटाई पर बैठे बच्चे। शिक्षक के हाथ में छड़ी। बच्चा सहमा-सहमा-सा पर यह दृश्य उत्तरोतर बदलता गया है।

शिक्षक, शिक्षार्थी या अभिभावकों को शिक्षा में परिवर्तन लाना था इसलिए स्थितियाँ तो बदलनी ही थीं। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान नए भारत की रचना में जिस शिक्षा का सपना देखा था, उसकी छवि अलग थी। उस सपने के अनुसार शिक्षा वह है जो अंधकार से मुक्ति दिलाए, जो व्यक्ति को स्वाभिमानी और स्वावलंबी बनाए। बुनियादी शिक्षा का स्वरूप सामने आया, उसमें अक्षर और अंक ज्ञान के साथ हाथ का हुनर भी सीखना था।

अपने हाथ में विभिन्न प्रकार के हुनर जैसे खाना पकाने, सफाई करने, कपड़े धोने, चरखा कातने, बागवानी करने, तालीम जैसे छोटे-छोटे काम अपने हाथों से किए बिना व्यक्ति स्वावलंबी नहीं हो सकता। हाथ के हुनर से अर्थार्जन भी होता था। सभी विद्यालयों में अपनी मातृभाषा में पढ़ाई होती थी। गाँवों के लोग भी विद्यालय के रख-रखाव और व्यवस्था में सहयोगी बनते थे।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जितने भी विद्यालयों की स्थापना हुई, वहाँ पढ़ाई के साथ-साथ उपरोक्त पाठ्यक्रम लिए गए। विश्वास था कि स्वावलंबी मनुष्य ही स्वाभिमानी हो सकता है। सामाजिक जीवन में परावलंबन को पाप समझा जाता रहा है। महात्मा गाँधी के नेतृत्व में चले स्वराज्य आंदोलन में व्यक्ति को पूर्ण रूपेण स्वावलंबी बनाकर देश को स्वावलंबी बनाने का सपना भी था। उन्होंने ही जाकिर हुसैन की अध्यक्षता में एक समिति बनाई थी। उस समिति ने बुनियादी तालीम पर जोर दिया जिसमें छात्रों के आत्मनिर्भर बनने, अपना काम स्वयं करने जैसे गुणों का विकास महत्वपूर्ण था।

अभिभावकों और शिक्षकों के बीच दूरियाँ कम। दोनों मिलकर बच्चों के अंदर गुणों का विकास करते रहे। दोनों में परस्पर पूरकता भी थी और पूर्ण विश्वास भी। शिक्षक बच्चों का हित ही सोचेगा, अभिभावक आश्वस्त रहते थे। विद्या मंदिर विद्या स्थली था, अखाड़ा नहीं। समाज में धनवान लोग विद्यालय खोलते थे। वे विद्यालय भी उनके लिए मंदिर ही होता था। कई लोग शिक्षालयों के लिए गुप्तदान देते थे।

बदलाव बहुत तेजी से आते हैं। बुनियादी तालीम वाले स्कूल बंद हो गए। काम करते हुए सीखने की मानसिकता बदल गई। व्यावहारिक और स्थानीय भौगोलिक आवश्यकताओं के अनुसार जीवनोपयोगी शिक्षा समाप्त हुई। विद्यालयों में श्रम का दूर-दूर तक नामोनिशान नहीं रहा। अपने बच्चों को विद्यालय में श्रम करते देखना भी नहीं चाहते अभिभावक।

अब तक विद्यालय से वंचित करोड़ों बच्चों के लिए शिक्षा का कारोबार करने वाले उद्योगपति विद्यालय नहीं खोलेंगे। दरअसल, ये बच्‍चे तो जीवन की शि‍क्षा ग्रहण कर ही रहे हैं। अक्षर और अंक ज्ञान के बगैर अपनी रोजी रोटी कमाने की शि‍क्षा प्राप्त कर रहे हैं।
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किसी विद्यालय में (सरकारी या निजी) यदि किसी शिक्षक ने बच्चे से झाड़ू लगवा ली, दूसरे ही दिन उसके ऊपर लट्ठ बज जाए। विद्यालय के संचालन में गाँव वालों का कोई सहयोग नहीं। सरकारी विद्यालयों के अलावा हर गाँव में कॉन्वेंट स्कूल खुल गए। बच्चों को टूटी-फूटी अँगरेजी सिखाने के लिए अभिभावक स्कूल के लिए मनचाह शुल्क दे रहे हैं।

शिक्षक भयभीत हैं। व्यवस्था के रहमोकरम पर हैं। विद्यार्थियों की मनोदशा और प्रवृत्ति अलग है। ऐशो-आराम से युक्त एक से एक विद्यालय भवनों की स्थापना हुई है। शहरों में वातानुकूलित कमरों वाले विद्यालय भी हैं। बच्चों को अच्छी कमीज, पैंट, जूते, मोजे और टाई में ही आना अनिवार्य कर दिया गया है।

अभिभावकों में अपने बच्चों को अधिक-से-अधिक फीस वाले विद्यालयों में पढ़ाने की, साहब बनाने की प्रतिस्पर्धा है। जीवन जीने की शिक्षा बहुत पीछे छूट गई। इसलिए पढ़े-लिखे युवक-युवतियों के पास से जीवन ही खिसकता नजर आ रहा है। उन्हें जीने की कला नहीं आती। वे सब भयभीत भी होते जा रहे हैं। नई पीढ़ी में प्राकृतिक और सामाजिक आपदाओं से लड़ने की ताकत नहीं है।

ऐसे विद्यालय चलाने वाले पैसे वाले ही हैं। साठ वर्ष पूर्व भी विद्यालय चलाने के लिए धनवानों की जरूरत होती थी, पर उनका उद्देश्य शिक्षालयों से पैसा नहीं, प्रतिष्ठा अर्जित करना होता था। जैसे कुआँ खुदवाना, धर्मशालाएँ-मंदिर बनवाना पुण्य का काम समझा जाता था, वैसे ही विद्यालय खुलवाना भी। आज संपन्न लोग शिक्षा के लिए विद्यालयों की स्थापना नहीं करते। पैसा बनाने के लिए करते हैं। जीवन में अर्थ की प्रधानता ने सारा गड्डमड्ड कर दिया है।

शिक्षा भी उद्योग के क्षेत्र में आ गई है। विभिन्न औद्योगिक कार्यों और व्यापार से धन कमाया जाता है। शिक्षा भी एक उद्योग है। फल तो सामने आ रहा है। जिस प्रकार विभिन्न औद्योगिक संस्थाओं द्वारा उपयोग की सामग्रियों का उत्पादन होता है, उसी प्रकार इन शिक्षण संस्थाओं द्वारा भी इंजीनियर, डॉक्टर, सॉफ्टवेयर इंजीनियर बनाने के लिए कच्चे माल (हाईस्कूल पास लड़के-लड़कियाँ) का उत्पादन होता है। बच्चों के सामने मात्र अधिक-से-अधिक अंक प्राप्त करना लक्ष्य है। वे इधर-उधर मुड़कर भी नहीं देखते। उनका बचपन छीन रहा है।

शिक्षण संस्थाओं के उद्योगीकरण और व्यापारीकरण के कारण समाज में बहुत सी विद्रूपताएँ आ गई हैं। परिवार का स्वरूप, मूल्य, एक-दूसरे के लिए जीने, काम आने जैसे मानवीय मूल्य बदल गए हैं। सर्वत्र अनुशासनहीनता दिखती है। यदि शिक्षालयों में धन का प्रभाव कम किया जाए तो शिक्षा तंत्र में बहुत कुछ सँवारा-सुधारा जा सकता है।

पिछले दिनों संसद के दोनों सदनों से शिक्षा के मौलिक अधिकार को वैधानिक मान्यता मिली है। गंभीर और चिंताजनक सवाल है कि इसे लागू कैसे किया जाएगा? यह सच है कि अब तक विद्यालय से वंचित करोड़ों बच्चों के लिए शिक्षा का कारोबार करने वाले उद्योगपति विद्यालय नहीं खोलेंगे। दरअसल, ये बच्‍चे तो जीवन की शि‍क्षा ग्रहण कर ही रहे हैं। अक्षर और अंक ज्ञान के बगैर अपनी रोजी रोटी कमाने की शि‍क्षा प्राप्त कर रहे हैं। जीवन के करीब हैं। धन के प्रभाव वाले वि‍द्यालय रूपी कारखाने के लि‍ए ऐसा कच्‍चा माल नहीं चाहि‍ए।

सरकार के पास इतना पैसा नहीं है कि‍ स्‍कूलों से वंचि‍त उन करोड़ों बच्‍चों को पढ़ाने के लि‍ए वि‍द्यार्थि‍यों की व्‍यवस्‍था कर सके। फि‍र क्‍या होगा मौलि‍क शि‍क्षा अधि‍कार कानून का? ठंडे बस्‍ते में जाने के अलावा कोई उपया नहीं सूझता।

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