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साहित्य बदल सकता है जिंदगी

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हमें फॉलो करें साहित्यिक पत्रिका अक्षर
-डॉ. विजय अग्रवाल
मरने के बाद/आदमी कुछ नहीं सोचता,
मरने के बाद/आदमी कुछ नहीं बोलता।

कुछ नहीं सोचने/और कुछ नहीं बोलने से,
आदमी मर जाता है।

सच ही तो है मेरे मित्र, कि चाहे कोई शख्स जीते जी न सोचे, न बोले, या मरने के बाद न सोचे, न बोले, दोनों ही तो बराबर हैं और सोचने तथा बोलने का यह जरूरी काम कराती हैं-किताबें। ये किताबें ही हममें वह कूवत पैदा करती है और कर सकती हैं कि हम सोचकर ही, हम बोलकर ही, एक जिंदा इंसान और एक जिंदा कौम होने का सबूत पेश कर सकते हैं।

मेरे नौजवान दोस्तों, हल्के गुलाबी रंग की एक छोटी-सी साहित्यिक पत्रिका के अंतिम पृष्ठ पर जब मैंने उसमें लिखे हुए ये दहकते अक्षर पढ़े थे, तब मुझे अचानक ऐसा लगा था मानो कि मेरी चेतना के पाँव अचानक धधकते हुए अँगारों के ढेर पर पड़ गए हों। आपके साथक्या हुआ, यह तो आप ही जानें। लेकिन मुझे लगता है कि हर नौजवान को इन पंक्तियों का एक खूबसूरत पोस्टर बनाकर उस जगह पर लगा लेना चाहिए जहाँ उसकी निगाहें बार-बार पड़ती हों।

जमीनी हकीकत क्या है, आइए, यहाँ थोड़ा इस बात पर गौर करते हैं। यदि मैं अपने दौर की बात करूँ, तो यह सातवें-आठवें दशक का दौर था, जब हम लोग स्कूल-कॉलेज में उसी तरह दाखिल थे, जैसे कि आज आप हैं। आप यदि उस समय की फिल्मों पर गौर फरमाएँ, तो आपको कई ऐसी फिल्में मिल जाएँगी। जिसमें नायक और नायिकाएँ कॉलेज के विद्यार्थी हैं और उनके हाथों में किताबें हैं।

कहीं नायिका बिस्तर पर लेटकर तो कहीं लायब्रेरी में बैठकर किताब पढ़ रही है, और उस किताब के शीर्षक पर फोकस किया जाता था। याद कीजिए साहिर लुधियानवी के लिखे उस उद्भुत गीत की पंक्तियों को, कि 'जो बात तुझमें है तेरी तस्वीर में नहीं।' इस गीत में नायक नायिका से हुई अपनी पहली उस मुलाकात को याद करता है, जब कॉलेज से निकलकर घर जाती हुई नायिका के हाथों से छूटकर किताबें नीचे गिर गई थीं और नायक उन बिखरी हुई किताबों को उठाकर नायिका को देता है।

उल-जलूल छायावादी सपने देखने वाले हम युवा ऐसे दृश्यों को देखकर यह सुखद भ्रम पालकर अधिक से अधिक किताबें पढ़ने लगते थे कि 'इससे लड़कियाँ इम्प्रेस्ड होती है।' वे इम्प्रेस्ट हुई हों या नहीं, यह तो वे ही जानें, लेकिन इस चक्कर में हम लोगों का इतना भला जरूर हो गया कि किताबें पढ़ना जिंदगी के दायरे में शुमार हो गया। इसके बाद शुरू हुआ पिज्जा का दौर, इसके बाद शुरू हुआ कोल्ड ड्रिंक का दौर (याद कीजिए फिल्म मोहब्बतें को (जो फिलहाल 'धूम' पर आकर रुका हुआ है, जिसके केंद्र में है-बाइक।

दोस्तों मेरा किसी तरह का भी विरोध पिज्जा, कोका कोला और बाइक से नहीं है। मेरी चिंता केवल यह है कि पिछले पाँच सालों में ही शहरों के छोटे-छोटे मार्केट में बारिस्ता, कॉफी डे, टॉप एन टाउन जैसी युवा केंद्रित दुकानें तो खुलीं, लेकिन न तो कोई किताब की दुकान खुली और न ही इस दौरान मैंने अखबारों में गलती से किसी पुस्तकालय के उद्घाटन का समाचार ही पढ़ा। ज्ञान, चेतना, सूचना और मनोरंजन के इस पूरे परिदृश्य को देखकर मेरे जेहन में उभरकर बार-बार ये पंक्तियाँ मेरी आत्मा के दरवाजे पर दस्तक देने लगती हैं कि 'कुछ नहीं सोचने से/ कुछ नहीं बोलने से/आदमी मर जाता है।'

तो कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारे चारों ओर जाने-अनजाने में बुने जा रहे माहौल का उद्देश्य ही यह हो कि लोगों को सोचने और बोलने का मौका ही न दिया जाए। उसे इस लायक छोड़ा ही न जाए। और इसका उपाय यही है कि युवाओं को किताबों से तथा किताबों को युवाओं से दूर कर दिया जाए, जितना संभव हो सके उतना दूर।

इसका अर्थ यह कतई न लगाया जाए कि मैं यह कह रहा हूँ कि आज के युवा पढ़ते नहीं हैं। वे पढ़ते हैं तथा हम लोगों से ज्यादा ही समय वे पढ़ाई को देते हैं लेकिन उनकी पढ़ाई का अधिकांश हिस्सा कोर्स की पढ़ाई करने में जा रहा है। शेष हिस्से को वे कॉमिक्स तथा हैरी पाटर जैसी किताबों के साथ गुजार रहे हैं। पिछले लगभग 6-7 सालों में एक अच्छी बात यह हुई कि इस दौरान जीवन प्रबंधन से जुड़ी बहुत सी किताबें बाजार में आईं। इनमें अधिकांशतः अँगरेजी का हिन्दी में अनुवाद रहीं, तो कुछ मूल हिन्दी में भी।

आर्थिक उदारीकरण के बाद हिन्दुस्तान में भी जो कार्पोरेट कल्चर उभर रहा है, उसके मद्देनजर हमारे युवाओं को यह बात लाजिमी लगी कि उन्हें अपने व्यक्तित्व को, अपनी सोच को और अपनी जीवन पद्धति को एक नए उपयोगितावादी साँचे में ढालना होगा। इसीलिए समाज में मैनेजमेंट गुरुओं की एक नई जमात सामने आई।

इसी का एक चलता-फिरता रूप है-पुस्तकें। मैं जब नई दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले में गया था, तो मुझे यह देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि ऐसी किताबों की अलमारियों के सामने समाज के सभी वर्ग के लोगों की मौजूदगी थी। हाँ, यह भी एक सच्चाई थी कि इस तरह की जो भीड़ अँग्रेजी की दुकान पर थी, वह हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं की दुकानों पर नहीं। इन सारी अच्छी स्थितियों के बावजूद मैं अपने युवा साथियों का ध्यान तीन-चार बातों की ओर दिलाना चाहूँगा।

पहली बात यह कि विद्यार्थी के रूप में जब आप अपने कोर्स की किताबें पढ़ते हैं तो आपको अपने कोर्स की किताबों से जुड़ी अन्य प्रासंगिक पुस्तकें भी पढ़नी चाहिए। यदि आप इतिहास के विद्यार्थी हैं तो स्वयं को रोमिला थापर और विपिन चंद्रा तक सीमित न रखकर दुर्गादास की पुस्तक 'भारत : कर्जन से नेहरू तक' तथा लैपियर-लारी की पुस्तक 'आधी रात को आजादी' तक फैलाएँ। आप चाहे किसी भी विषय के विद्यार्थी क्यों न हों, आपको सुनील खिलवानी की नई पुस्तक 'भारतनामा' जरूर पढ़नी चाहिए।

इस तरह की पुस्तकें जहाँ स्कूली ज्ञान में आपकी मदद करेंगी, वहीं आपके व्यक्तित्व के विकास में भी उत्प्रेरक का काम करेंगी। दूसरी बात यह है कि आज की पीढ़ी का झुकाव साहित्यिक किताबों के प्रति कम होता जा रहा है। वे इसे टाइम पास, मनोरंजन, थोथी भावुकता और समय की बर्बादी समझते हैं। मेरा अनुरोध है कि ऐसा कतई न सोचें।

साहित्य किसी भी रचनाकार के जीवन अनुभवों का निचोड़ होता है। हम सभी के पास केवल अपनी-अपनी ही जिंदगियाँ हैं, जिसे हम जी रहे हैं। साहित्य के जरिए हम न जाने कितनी जिंदगियाँ जी लेते हैं और अपने को न जाने कितने अधिक अनुभवों से समृद्ध कर लेते हैं।

आपको आत्मकथाओं और जीवनियों को पढ़ने से भी स्वयं को जोड़ना चाहिए। ये पुस्तकें न केवल आपको रोचक ही लगेंगी, बल्कि उस व्यक्ति, उसके समय और उस समय के समाज के बारे में आपकी जानकारी को बढ़ाएँगी। इससे आपमें निर्णय लेने की क्षमता विकसित होगी। दुर्भाग्य से हिन्दी प्रदेशों में पढ़ने की स्थिति चिंताजनक है। बिहार राज्य जरूर तसल्ली देता है, क्योंकि वहाँ के लोग पढ़ते हैं, और पढ़कर उसके बारे में लिखने वाले को बताते भी हैं।

आप भी ऐसा कीजिए। अब मैं अपने इस लेख की समाप्ति इन प्रभावशाली शब्दों से करना चाहूँगा जो जापान के शाही कला भवन के तोरण-द्वार पर अंकित है। 'सरस्वती से श्रेष्ठतर कोई वैद्य नहीं, और उसकी साधना से बढ़कर कोई औषधि नहीं है।'

लेखक पत्र सूचना कार्यालय, भोपाल के प्रभारी हैं।

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