बचपन यानी ठहाके,शरारतें, बेफिक्री और एक प्यारी-सी मुस्कान। लेकिन क्या नसीब है हर बच्चे को खुशियों के खिलखिलाते मोती, उमंगों का उजाला और नए युग के नए सपने? इस देश की विडंबना है कि यहाँ गरीबी और लाचारी के साये में पल रहे बच्चे उम्र में तो बच्चे ही हैं लेकिन हालात ने उन्हें इतना बड़ा बना दिया है कि वे बचपन की मासूम परिभाषा भूल गए हैं। घोर नकारात्मक परिस्थिति में भी इसी देश में कुछ बच्चे ऐसे अदभुत आधुनिक आयाम रच रहे हैं कि उनके साहस को सलाम करने को जी चाहता है।
शहर : कानपुर, स्थान : 'अपना घर', B-135/8,प्रधान गेट, नानकरी, आईआईटी कानपुर। एक छोटे से कमरे में 12 बच्चे 'बाल सजग' नाम से ब्लॉग अपडेट कर रहे हैं। बच्चों के लिए बच्चों का ब्लॉग। बदलते दौर में आज के हाईटेक बच्चे अगर ऐसा करें भी तो आखिर क्या चमत्कार है? लेकिन यह चमत्कार भी है, और एक पूरी की पूरी जाति की चौकसी का संकेत भी।
दरअसल, कानपुर के 'अपना घर' नाम से स्थापित बच्चों का यह समूह अभिजात्य वर्ग से नहीं आया है। ये बच्चे उच्च तकनीकी शिक्षा केन्द्रों या महँगे स्कूलों से नहीं आए हैं। यह बच्चे कानपुर में साल के हर नवंबर में आने वाले और जून में पुन: अपने पिछड़े गाँव लौट जाने वाले प्रवासी मजदूरों के हैं। यह बच्चे कल तक ईंट-भट्टों की झुलसती आँच में तप रहे थे, कल तक इनके हाथों में कठोर और गर्म ईंटों से हुए फफोले थे आज उन्हीं हाथों में माउस और की-बोर्ड है। अभिव्यक्ति का आधुनिक खुला आकाश यानी इंटरनेट है और भोले मन से निकली नन्ही-नन्ही कविताएँ है, छोटी-छोटी कहानियाँ हैं। आइए इन्हें विस्तार से जानते हैं:
एक कदम : प्रवासी मजदूरों के लिए कानपुर में शिक्षा पर आधारित आवासीय प्रोजेक्ट 'एक कदम' की शुरुआत हुई। इस प्रोजेक्ट का उद्देश्य प्रवासी मजदूरों के बच्चों का सर्वांगीण विकास और समाज की मुख्य धारा से जोड़ना है। सामाजिक कार्यकर्ता विजया रामचन्द्रन व महेश कुमार ने आशा फॉर एज्यूकेशन ट्रस्ट के सहयोग से जुलाई 2006 में एक होस्टल की स्थापना की। 12 बच्चों के साथ यह शुभ 'कदम' आगे बढ़ा।
कौन है प्रवासी मजदूर पिछड़े इलाकों से शहरों में काम की तलाश में मजदूर बरसों से आते रहें हैं। कानपुर जैसे औद्योगिक नगर में इनकी संख्या दूसरे शहर की अपेक्षा बढ़ जाती है। कानपुर में वर्तमान में लगभग 270 ईंट-भट्टे संचालित हैं। यहाँ काम करने वाले मजदूर अपने ठेकेदारों से अग्रिम धनराशि ले लेते हैं। जिसके बदले में उन्हें तमाम जिंदगी बंधुआ मजदूर के रूप काम करना पड़ता है। पीढ़ी दर पीढ़ी यह चक्र चलता है और इसके शिकार होते हैं मजदूरों के मासूम बच्चे, जो सुकोमल हाथों से ईंटों की भराई और निकासी के काम में लग जाते हैं,बिना यह जाने कि बचपन की शरारतें क्या होती हैं और बचपन की निश्छल मुस्कान के क्या मायने है?
कदम कैसे बढ़ा आगे आरंभ में सामाजिक कार्यकर्ता विजया रामचन्द्रन ने (उनकी एक और पहचान है कि वे पूर्व राष्ट्रपति स्व. वेंकटरमन की पुत्री है) 1984 में ईंटों के भट्टे पर ही शिक्षा केन्द्र की स्थापना की। नाम रखा गया 'अपना स्कूल'। इस 'अपना स्कूल' की समूची जिम्मेदारी मजदूरों बच्चों को ही दी गई। समस्या यह सामने आई कि नवंबर से जून तक तो इन बच्चों को पढ़ाना आसान था लेकिन बारिश की वजह से भट्टों पर काम बंद होने से वापस अपने गाँव लौट जाते और शिक्षा की रोशनी मंद होने लगती।
समाधान के रूप में 'अपना घर' नाम से होस्टल खोला गया। विजया जी, संदीप पांडेय(मैग्सेसे अवॉर्ड प्राप्त) व महेश पांडेय के मिलेजुले प्रयासों से 9 बच्चे को प्रवेश दिया गया जहाँ वर्तमान में 12 बच्चे अपने जीवन की सतरंगी आशाओं का इन्द्रधनुष रच रहे हैं।
वॉल मैग्जीन में बाल रचनाएँ यहाँ बच्चों की रचनात्मकता को निखार देने और उनकी विविध रंगी सोच को कैनवास देने के लिए एक वॉल मैग्जीन आरंभ की गई। प्रति शनिवार हस्तलिखित इस पत्रिका में 12 बच्चे अपनी मधुर कल्पना और अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने लगे। अब इन बच्चों ने नए सपनों, नए अरमानों और नए हौंसलों की कच्ची-पक्की परिभाषाएँ रचना शुरु की। कविता, कहानी और संस्मरणों का अनगढ़ सिलसिला आरंभ हुआ।
वॉल से ब्लॉग तक 'बाल सजग' दीवारों पर अपने भावों की शब्द-आकृतियाँ रचते हुए इन नन्हे कलमकारों ने कभी सोचा नहीं था कि उनके हाथों में एक दिन शहरी बच्चों की तरह वह माऊस और की-बोर्ड होगा और उनकी रचनाएँ इंटरनेट के जरिए देश के अखबारों तक पहुँच जाएगी। 13 वर्षीय अशोक और 12 वर्षीय ज्ञान को उनकी रूचि के आधार पर 'बाल-सजग' वॉल मैग्जीन के क्रमश: संपादक और उप-संपादक बनाया गया।
'अपना घर' के संचालक महेश पांडेय ने ब्लॉग के बारे में सुना तो धीरे-धीरे उनकी दिलचस्पी बढ़ी कि आखिर यह क्या है? इंटरनेट पर जाकर उन्होंने पाया कि बच्चों के लिए लिखने वाले तो बहुत हैं और बच्चों जैसा लिखने वाले भी कम नहीं। बस कमी है तो इस बात की कि बच्चे खुद अपने लिए नहीं लिख रहे हैं।
एक-दो ब्लॉग वैसे मिले भी तो जाहिर है कि उस बचपन के जो सुख, सुविधा और संसाधनों से संपन्न है। महेश बाल-सजग पत्रिका के सहयोगी तो थे ही। उन्होंने पहले स्वयं सारी चीजें सीखी, समझी और जानी फिर 'अपना घर' के 12 बच्चों से बातचीत कर उनके मन टटोले। बच्चों के लिए यह किसी अजूबे से कम नहीं था।
छोटी उम्र में बड़ी जिम्मेदारी : 13 वर्षीय संपादक अशोक कुमार कहते हैं, शुरू में तो डर लगा था कि कंप्यूटर का अखबार कैसा होता है। हम कैसे करेंगे सब, कहीं गलत बटन दब गया तो ?हमने तो कभी कंप्यूटर देखा भी नहीं था। पर अब सब आ गया है।
और कदम बढ़ ही गए संकोच और झिझक का दौर खत्म हुआ तो आईआईटी कानपुर के कुछ प्रोफेसर जुड़े। कुछ सहयोग राशि जुटाई। एक कंप्यूटर और एक लैपटॉप आया। महेश पांडेय ने जानकारी एकत्र की कि कैसे ब्लॉग बनेगा और कैसे एग्रीगेटर में उसे रजिस्टर किया जाए। बच्चों को पूरी ट्रेनिंग दी। इंटरनेट क्या होता है से लेकर इंटरनेट के इस्तेमाल तक, टाइपिंग, कन्वर्वर्टर और अपलोडिंग-पोस्टिंग तक।
महेश को इस काम में पूरे 6 महीने लगे। ब्लॉग का नाम वॉल मैग्जीन के आधार पर ही रखा गया 'बाल सजग'। एडिटर अशोक कुमार और सब एडिटर ज्ञान का काम तय हुआ कि वे वॉल मैग्जीन से रचनाओं का शनिवार को चयन करेंगे और रविवार को उन्हें संशोधित कर पोस्ट करेंगे।
जब हमने बाल संपादक अशोक कुमार से बात की तो उन्होने बताया 'हमारे स्कूल का समय 10 बजे से 4.30 तक है। हम हर रोज एक घंटा अपने ब्लॉग को देते हैं। रात के 9 बजे से 10 बजे तक अगर कभी एक दिन नहीं दे पाते हैं तो दूसरे दिन सुबह सात से आठ बैठते हैं।
हमें खूब सारे ई-मेल आते हैं उनका जवाब भी देते हैं। अभी तक तो हम हमारी पत्रिका बाल सजग में लगी कविता और कहानी उठाते हैं उनको ठीक- ठाक करते हैं और फिर पोस्ट करते हैं। हम 12 बच्चे हैं और सब टाइप भी कर लेते हैं। अब हम सोच रहे हैं कि ब्लॉग में कुछ इंटरव्यू भी लेकर डालें और कुछ न्यूज टाइप की चीजें भी।
हमारे एक साथी आशीष ने अपना अलग ब्लॉग बनाया है। उसका नाम रखा है 'डेंजर स्कूल'। क्योंकि कभी-कभी स्कूल में टीचर बिना बात के हमारी पिटाई कर देते हैं और हमको समझ में नहीं आता इसलिए इसका नाम डेंजर स्कूल रख दिया। इसमें यह सारे किस्से हैं कि टीचर को कैसे चिढ़ाते हैं और सारी मस्ती जो हम स्कूल में करते हैं सब आशीष ने डेंजर स्कूल ब्लॉग में डाली है।
नन्ही सोच : गहरी समझ बाल सजग ग्रुप के सबसे छोटे सदस्य हैं पाँचवी क्लास के चंदन। उनके माता पिता जिस समाज से हैं वहाँ स्त्री-पुरुष दोनों शराब पीते हैं। दिवाली की छुट्टियों में चंदन ने घर जाकर देखा कि दिवाली वाले दिन दोनों ने खूब शराब पी। चंदन ने माँ को रोका और सच में माँ के हाथ रूक गए। चंदन ने घर से लौटकर एक रिपोर्ट बनाई और उसमें लिखा मैंने इस बार एक अच्छा काम किया अपनी माँ को शराब पीने से रोका और वो मान गई।
मैंने पटाखे भी नहीं छुड़ाए, खूब मन था तब भी नहीं। क्योंकि इन पटाखों को हम जैसे छोटे-छोटे बच्चे बनाते हैं और पटाखे बनाते हुए वे मर भी जाते हैं। हम पटाखे नहीं छुड़ाएँगे तो उन बच्चों को बनाना भी नहीं पड़ेगा।
यह दर्द मासूम चंदन तक इसलिए पहुँच पाया क्योंकि उसने ईंट के भट्टों की आँच को नजदीक से देखा है। हथेली के छालों को बिना मरहम के फूटते हुए सहा है। दिवाली के शोर में खुशियों में डूबे क्या कभी हम बुद्धिजीवी उतना दूर तक कभी सोच पाए हैं? जबकि हर वर्ष पटाखों की नगरी शिवाकाशी के जलते आँकड़े अखबारों में हमारे सामने होते हैं।
संचालक महेश पांडेय खुश हैं महेश अब खुद ब्लॉग को समय नहीं दे पाते हैं। सारा काम बच्चे ही देखते हैं। मुझे खुशी है कि इन बच्चों के बहाने परिवर्तन की धीमी मगर सुखद बयार चल पड़ी है। वे बंधुआ मजदूर जो पहले बच्चों के स्कूल से नाराज थे अब इंटरनेट जैसी चीजों तक उनके पहुँचने से आश्चर्य और खुशी से स्तब्ध है। वे जो बच्चों को स्कूल भेजने के नाम पर कतराते थे अब आगे बढ़कर उन्हें पढ़ाना चाह रहे हैं। बाल सजग अब 12 से 20 बच्चों का ग्रुप बन गया है। मैं तो एक माध्यम हूँ, सबके सहयोग और बच्चों की लगन से यह संभव हुआ है। विजयाजी, आईआईटी के प्रोफेसर,स्टूडेंट्स, आशा ट्रस्ट और दयालु लोगों की मदद से यह सब अच्छे से चल रहा है।
बाल दिवस और बाल सजग बाल दिवस के अवसर पर यह आकर्षक ब्लॉग हमें एक मीठी मुस्कान देता है कि वे बच्चे जो कल तक तपती ईंट-भट्टियों में अपने बचपन को स्वाहा होते देख रहे थे आज इतने सजग हो गए हैं कि अपनी सोच को सार्थक दिशा दे पा रहे हैं। बाल सजग की टीम को सलाम। बाल-दिवस पर हर यह ब्लॉग हर बच्चे की प्रेरणा बनेगा, हम यह चाह रहे हैं, यही आप भी सोच रहे हैं।