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बाल मन के नाजुक सवाल

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बाल दिवस : सुनो, नन्हा मन कुछ कहता है

ऋषि गौत

 

बच्चों तुम तकदीर हो कल के हिंदुस्तान की

बापू के वरदान की,नेहरू के अरमान की...


 


साहिर लुधियानवी के गीत के बोल देश में बच्चों की महत्ता को साफ जाहिर करते हैं। आज जब पूरा विश्व बुजुर्ग हो रहा है। भारत दिन ब दिन जवां हो रहा है और यही हमारी सबसे बड़ी ताकत भी है। तभी तो हम यंगिस्तान कहलाते हैं।

बावजूद इसके देश की फुलवारी में बचपन के कोमल फूल जिस तरह से खिलने चाहिए थे वह नहीं खिल पा रहे हैं। कहीं भूख की आग उन्हें झूलसा रही है तो कहीं किताबों का बोझ उन्हें दबाए जा रहा है। भागदौड़ भरी इस दुनिया में बचपन के सारे रंग,सारे ख्वाब मिनटों में चकनाचूर हो रहे हैं और बच्चे समय से पहले ही बड़े हो रहे हैं। आखिर क्यों? बच्चे यह सवाल खुद पूछे या नहीं पूछे लेकिन यह सवाल उनके मन में है। बाल दिवस के इस मौके पर बात,बाल मन के इन्हीं सवालों की......

अमूमन हर अविभावक अपने बच्चे के लिए अच्छा सोचता है,अच्छे से अच्छा करना चाहता है। उसे सबसे आगे देखना चाहता है। इतना तक तो ठीक है और बहुत स्वाभाविक भी। लेकिन यहां देखना होगा कि हम बच्चे की प्रतिभा के संपूर्ण विकास की नींव रख रहे हैं या उसे अपनी महत्त्वाकांक्षा का हिस्सा बनाकर उसकी जिंदगी में अंधेरी दलदल और तनाव परोस रहे हैं। कहीं पेट की आग है,कहीं गरीबी की मजबूरी है तो कहीं अपनों की बड़ी-बड़ी महत्वाकांक्षाओं की चाह मासूम बचपन पर भारी पड़ रही है।

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भारत जैसे देश में बाल मजदूरी,बाल विवाह और बाल शोषण के तमाम ऐसे अनैतिक और क्रूर कृत्य मिलेंगे जिन्हें देख आपको यकीन नहीं होगा कि यह वही देश है जहां श्री कृष्ण को बाल रूप में पूजा जाता है,उनकी बाल लीलाओं की कहानियां सुनाई जाती हैं।

आंकड़ों के मुताबिक चाचा नेहरू के इस देश में लगभग 5 करोड़ बच्चे बाल श्रमिक हैं। ऐसे बच्चों के हिस्से में भविष्य के सपनों,किताबों की जगह हाड़तोड़ मेहनत,मालिकों की प्रताड़ना,उनकी हवस,यौन कुंठाओं की तृप्ति आती है।

यही देश के करोड़ों बच्चों की तकदीर है। इनमें से कुछेक ही बच्चे ऐसे हैं,जो किसी तरह इस चंगुल से निकल पाते हैं।


यह तो सिर्फ देश के एक भारत की कहानी है। यहां दूसरा भारत भी बसता है जिसे टि‍फिन में फास्टफूड परोस कर बड़े स्कूलों में भेजा जाता है। जिसे सारी आधुनिक सुख-सुविधाएं मौजूद हैं। लेकिन इनकी कहानी भी कुछ कम कष्टप्रदनहीं है। खिलखिलाते,लहलहाते बचपन पर यहां भी किसी की नजर लग गई है। और वह कष्ट है उनके अपने द्वारा सबकुछ तुरत-फुरत पाने की चाहत।

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हममें से हर कोई चाहता है कि उसका बच्चा अमिताभ,शाहरुख या सचिन बने। लेकिन बात प्रतिभा को समझने और उसे निखार देने की है। हम गलत यहां तब हो जाते हैं जब हम बच्चे में प्रतिस्पर्द्धा की भावना भर देते हैं।

हम उसके लिए संसाधन और अवसर तो जुटाते हैं, पर यह भी जता देते हैं कि वह दूसरों से अव्वल आए तभी ठीक है। पड़ोसी के बच्चे के 90 प्रतिशत अंक आ जाएं तो हमारे छिटकू के 85 प्रतिशत अंक तुरंत पानी में चले जाते हैं। उसकी पूरी मेहनत और मार्कशीट में दर्ज 85 फीसदी अंक दो कौड़ी के हो जाते हैं। इस वक्त जहां उसे आदर-दुलार मिलना था,पर हिस्से आती है हीन भावना और तनाव।

इसके आगे की कहानियों से अखबार और समाचार चैनल भरे पड़े हैं। बच्चे कितने हिंसक और आक्रामक हो रहे हैं यह आपको बताने की जरूरत नहीं है। हीन भावना इतनी भर गई है कि इम्तहान देने के साथ ही आत्महत्या कर रहे हैं। हम बच्चे को म्यूजिक सिखाते हैं,डांस सिखाते हैं,इसलिए कि वह टीवी के रियलिटी शो का हिस्सा बने। वह जीतता है तो परिवार हंसता है और हारे तो जार-जार आंसू बहाता है। उसे इतनी जल्दी बड़ा मत बनाइए। उसे अभी बच्चा ही रहने दीजिए।

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