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आखिर ईसा मसीह को कहां दफनाया गया था?

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अनिरुद्ध जोशी

ईसा मसीह ने 13 साल से 29 साल उम्र के बीच तक क्या किया, यह रहस्य की बात है। बाइबल में उनके इन वर्षों के बारे में कुछ भी उल्लेख नहीं मिलता है। अपनी इस उम्र के बीच वे कहां थे? 30 वर्ष की उम्र में येरुशलम लौटकर उन्होंने यूहन्ना (जॉन) से दीक्षा ली। दीक्षा के बाद वे लोगों को शिक्षा देने लगे। ज्यादातर विद्वानों के अनुसार सन् 29 ई. को प्रभु ईसा गधे पर चढ़कर येरुशलम पहुंचे। वहीं उनको दंडित करने का षड्यंत्र रचा गया। अंतत: उन्हें विरोधियों ने पकड़कर क्रूस पर लटका दिया। उस वक्त उनकी उम्र थी लगभग 33 वर्ष।
 
रविवार को यीशु ने येरुशलम में प्रवेश किया था। इस दिन को 'पाम संडे' कहते हैं। शुक्रवार को उन्हें सूली दी गई थी इसलिए इसे 'गुड फ्रायडे' कहते हैं और रविवार के दिन सिर्फ एक स्त्री (मेरी मेग्दलेन) ने उन्हें उनकी कब्र के पास जीवित देखा। जीवित देखे जाने की इस घटना को 'ईस्टर' के रूप में मनाया जाता है। उसके बाद यीशु कभी भी यहूदी राज्य में नजर नहीं आए। अर्थात 33 साल की उम्र के बाद वे कभी भी नजर नहीं आए। तब सवाल उठता है कि फिर उन्हें किसने और कब दफनाया?
 
 
बाइबल में उनकी कहानी के कुछ ही किस्से मिलते हैं। पहला उनके पैदा होने की कहानी, दूसरा जब वे सात साल के थे तब वे एक त्योहार के समय मंदिर में जाते हैं, तीसरा जब में गधे पर चढ़कर यरुशलम पहुंचकर यहून्ना से बपस्तिमा लेते हैं, चौथा जब उनके शिष्यों के साथ वे रहते, उपदेश देते हैं, पांचवां जव वे अंतिम भोजन करते हैं और छठा जब उन्हें सूली पर लटका दिया जाता है अंत में सातवां जब वे फिर से जी उठते हैं। इसके बाद उनका शेष जीवन काल अज्ञात है। ईसाईयों की कहानी के अनुसार जीसस का पुनर्जन्‍म होता है। परंतु प्रश्‍न यह है कि इस पुनर्जन्‍म के बाद दोबारा वे कहां गायब हो गए। ईसाइयत इसके बारे में बिलकुल मौन है कि इसके बाद वे कहां चले गए और उनकी स्‍वाभाविक मृत्‍यु कब, कैसे और कहां हुई?
 
 
ईसाई जगत इस संबंध में चुप है कि वे 13 से 29 साल के बीच कहां थे और 33 साल के बाद वे कहां थे। जब वे जिंदा हो गए थे तो फिर कैसे पुन: उनकी मृत्यु हुई और उन्हें कब्र में दफना दिया गया? उनकी गुफा वाली कब्र तो खाली है। ईसाई समुदाय मानते हैं कि एक दिन ईसा मसीह पुन: यरुशलम लौट आएंगे क्योंकि वे जिंदा है।
 
हालांकि एक अन्य कहानी अनुसार मैरी मेग्डैलिन से उन्होंने विवाह कर लिया था। इससे उनकी एक संतान हुई थी। उनकी एक संतान होने और उसकी रक्षा 'प्रायरी ऑफ ज़ायान' नाम के संगठन के द्वारा किए जाने का जिक्र मिलता है। इस कहानी पर प्रसिद्ध लेखक डैन ब्राउन किताब लिख चुके हैं। इस किताब का नाम है 'द विंची कोड'। इस किताब पर फिल्म भी बन चुकी है जो कि विवादों के चलते प्रतिबंधित कर दी गई।

उत्तर इजिप्ट (मिस्र) के एक शहर नाग हम्मदि के पास, सन 1945 में एक बर्तन में सुरक्षित रखे हुए 12 दस्तावेज मिले। बरसों असली दस्तावेजों का अध्ययन करने के बाद 'डैन ब्राउन' ने यह उपन्यास 'द विंची कोड' लिखा। इन दस्तावेजों को गूह्य समूहों ने जीवित रखा था। विख्यात चित्रकार लिओनार्दो द विंची ऐसे ही किसी गूह्य समूह के एक सदस्य थे इसलिए उन्होंने अपनी पेंटिंग्स में कुछ सूत्र, कुछ इशारे छुपाए हैं जिन्हें अनकोड किया जा सकता है। इन सबको आधार बनाकर बनी फिल्म है 'द विंची कोड।'
 
 
यरुशलम में है उनका मकबरा? 
ईसाइयों के लिए भी यह शहर बहुत महत्व रखता है, क्योंकि यह शहर ईसा मसीह के जीवन के अंतिम भाग का गवाह है। यहां चार घटनाएं घटी पहली यह कि उन्होंने यूहन्ना से दीक्षा ली, दूसरी यह कि वे गधे पर चढ़कर यहां पहुंचे, तीसरी यह कि यहां उन्हें सूली पर चढ़ाया, चौथी यह कि उन्हें मृत मानकर सूली पर से उतारकर उन्हें यहां कि एक गुफा में रखकर उसके उपर से एक बड़ा पत्थर लगा दिया था, पांचवीं यह कि वे इसी शहर के एक स्थान पर सूली पर से उतारे जाने के बाद जिंदा देखे गए और छठी यह कि उन्हें जहां जिंदा देखा गया था वहीं उन्हें दफना दिया गया।
 
 
यरुशलम के प्राचीन शहर की दीवारों से सटा एक प्राचीन पवित्र चर्च है जिसके बारे में मान्यता है कि यहीं पर प्रभु यीशु पुन: जी उठे थे। जिस जगह पर ईसा मसीह फिर से जिंदा होकर देखा गए थे उसी जगह पर यह चर्च बना है। इस चर्च का नाम है- चर्च ऑफ द होली स्कल्प्चर। कहा जाता है कि इस चर्च में वो चट्टान है जिस पर 33वीं में ईसा मसीह को दफनाने के लिए रखा गया था। माना यह भी जाता है कि यही वह स्थान है जहां ईसा ने अंतिम भोज किया था। यहां पर पत्थर के तीन स्लेब्स है। एक वह जहां पर पहले दफनाया गया दूसरा वह जहां पर जीवित पाए गए और तीसरा वह जहां उन्हें पुन: दफनाया गया था।
 
 
दरअसल, ईसा मसीह को सुली पर से उतारने के बाद एक गुफा में रख दिया गया था। उस गुफा के आगे एक पत्थर लगा दिया गया था। वह गुफा और पत्थर आज भी मौजूद है। चर्च ऑफ द होली स्कल्प्चर उस गुफा से अलग है।
 
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श्रीनगर में है उनका मकबरा?
कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि 13 से 29 वर्ष की उम्र और उसके बाद 33 से 112 वर्ष की उम्र तक ईसा मसीह भारत में रहे थे। माना जाता है कि इस दौरान उन्होंने भारतीय राज्य कश्मीर में बौद्ध और नाथ संप्रदाय के मठों में रहकर ध्यान साधना की थी। मान्यता है कि यहीं कश्मीर के श्रीनगर शहर के एक पुराने इलाके खानयार की एक तंग गली में 'रौजाबल' नामक पत्थर की एक इमारत में एक कब्र बनी है जहां उनका शव रखा हुआ है।
 
 
आधिकारिक तौर पर यह मजार एक मध्यकालीन मुस्लिम उपदेशक यूजा आसफ का मकबरा है, लेकिन बड़ी संख्या में लोग यह मानते हैं कि यह नजारेथ के यीशु यानी ईसा मसीह का मकबरा या मजार है। लोगों का यह भी मानना है कि सन् 80 ई. में हुए प्रसिद्ध बौद्ध सम्मेलन में ईसा मसीह ने भाग लिया था। श्रीनगर के उत्तर में पहाड़ों पर एक बौद्ध विहार का खंडहर हैं जहां यह सम्मेलन हुआ था।
 
अरबी भाषा में जीसस को 'ईसस' कहा गया है। काश्‍मीर में उनको 'यूसा-आसफ़' कहा जाता था। उनकी कब्र पर भी लिखा गया है कि 'यह यूसा-आसफ़ की कब्र है जो दूर देश से यहां आकर रहा' और यहां भी संकेत मिलता है कि वह 1900 साल पहले आया।  उस कब्र की बनावट यहूदी है। और कब्र के ऊपर यहूदी भाषा, हिब्रू में लिखा गया है।
 
इतिहास में पहली बार इसकी चर्चा 1747 में हुई। जब श्रीनगर के सूफी लेखक ख्वाजा मोहम्मद आज़म ने अपनी किताब 'तारीख आज़मी' में लिखा कि ये मज़ार एक प्राचीन विदेशी पैगम्बर और राजकुमार युज़ असफ की है। इसके बाद 1770 में इसके बारे में एक मुकदमे का फैसला सुनाते हुए मुल्ला फाजिल ने कहा, 'सबूतों को देखने के बाद, ये नतीजा निकलता है कि राजा गोपदत्त, जिसने सोलोमन का सिंघासन बनवाया, के समय युज़ असफ घाटी में आए थे। मर कर जिंदा होने वाले उस महान शहजादे ने दुनियावी चीज़ों को छोड़ दिया था. वो अपना पूरा ध्यान सिर्फ इबादत में लगाता था। कश्मीर के लोग, जो हजरत नूह के बाद बुतपरस्त बन गए थे। उन्हें उसने ऊपर वाले की इबादत करने के लिए कहा। वो एक ही ऊपर वाला होने की बात कहते रहते थे। बाद में इस मजार में सैय्यद नसीरुद्दीन को भी दफनाया गया।'
 
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पहलगाव था पहला ईसा मसीह का पड़ाव : पहलगाम का अर्थ होता है गडेरियों का गांव। जबलपुर के पास एक गांव है गाडरवारा, उसका अर्थ भी यही है और दोनों ही जगह से ईसा मसीह का संबंध रहा है। ईसा मसीह खुद एक गडेरिए थे। ईसा मसीह का पहला पड़ाव पहलगाम था। पहलगाम को खानाबदोशों के गांव के रूप में जाना जाता है। बाहर से आने वाले लोग अक्सर यहीं रुकते थे। उनका पहला पड़ाव यही होता था। अनंतनाग जिले में बसा पहलगाम, श्रीनगर से लगभग 96 कि.मी. दूर है।
 
 
इसके बाद जब जीसस श्रीनगर जा रहे थे तो उन्‍होंने एक स्‍थान पर ठहर कर आराम किया था और उपदेश दिए थे। क्‍योंकि जीसस ने इस जगह पर आराम किया इसलिए उन्‍हीं के नाम पर इस स्‍थान का नाम हो गया 'ईश मुकाम'। यह स्थान आज भी इसी नाम से जाना जाता है। पहलगाम से ही बाबा अमरनाथ की गुफा का दर्शन के लिए जाते हैं।
 
मान्यता है कि ईसा मसीह ने श्रीनगर के पुराने इलाके में प्राण त्यागे थे। ओशो की एक किताब 'गोल्डन चाइल्ड हुड' अनुसार मूसा यानी यहूदी धर्म के पैंगबर (मोज़ेज) ने भी यहीं पर प्राण त्यागे थे। दोनों की असली कब्र यहीं पर है। ओशो की पुस्‍तक 'दि सायलेंट एक्‍सप्‍लोजन' में इस बात का अच्‍छे से खुलासा किया गया है।
 
 
ओशो रजनीश के अनुसार, ''पहलगाम एक छोटा-सा गांव है, जहां पर कुछ एक झोपड़ियां हैं। इसके सौंदर्य के कारण जीसस ने इसको चुना होगा। जीसस ने जिस स्‍थान को चुना वह मुझे भी बहुत प्रिय है। मैंने जीसस की कब्र को कश्‍मीर में देखा है। इसराइल से बाहर कश्‍मीर ही एक ऐसा स्‍थान था जहां पर वे शांति से रह सकते थे। क्‍योंकि वह एक छोटा इसराइल था। यहां पर केवल जीसस ही नहीं मोजेज भी दफनाए गए थे। मैंने उनकी कब्र को भी देखा है। कश्मीर आते समय दूसरे यहूदी मोजेज से यह बार-बार पूछ रहे थे कि हमारा खोया हुआ कबिला कहां है? (यहूदियों के 10 कबिलों में से एक कबिला कश्मीर में बस गया था)। 
 
यह बहुत अच्‍छा हुआ कि जीसस और मोजेज दोनों की मृत्यु भारत में ही हुई। भारत न तो ईसाई है और न ही यहूदी। परंतु जो आदमी या जो परिवार इन कब्रों की देखभाल करते हैं वह यहूदी हैं। दोनों कब्रें भी यहूदी ढंग से बनी है। हिंदू कब्र नहीं बनाते। मुसलमान बनाते हैं किन्‍तु दूसरे ढंग की। मुसलमान की कब्र का सिर मक्‍का की ओर होता है। केवल वे दोनों कब्रें ही कश्‍मीर में ऐसी है जो मुसलमान नियमों के अनुसार नहीं बनाई गई।'
 
 
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निकोलस नोतोविच का शोध : एक रूसी अन्वेषक निकोलस नोतोविच ने भारत में कुछ वर्ष रहकर प्राचीन हेमिस बौद्घ आश्रम में रखी पुस्तक 'द लाइफ ऑफ संत ईसा' पर आधारित फ्रेंच भाषा में 'द अननोन लाइफ ऑफ जीजस क्राइस्ट' नामक पुस्तक लिखी है। कहते हैं कि वे 1887 में भारत आए थे। यहां उनकी तबीयत खराब हो गई थी तो उन्हें इस मठ में रखा गया था।
 
वहां पर उन्होंने बौद्ध साहित्‍य और बौद्ध शस्‍त्रों के अनेक ग्रंथों को पढ़ा। इनमें उनको जीसस के यहां आने के कई उल्‍लेख मिले। इन बौद्ध शास्‍त्रों में जीसस के उपदेशों की भी चर्चा की गई है। बाद में इस फ्रांसीसी यात्री ने 'सेंट जीसस' नामक एक पुस्‍तक भी प्रकाशित की थी। इसमें उसने उन सब बातों का वर्णन किया है जिससे उसे मालूम हुआ कि जीसस लद्दाख तथा पूर्व के अन्‍य देशों में भी गए थे।
 
 
हेमिस बौद्घ आश्रम लद्दाख के लेह मार्ग पर स्थि‍त है। किताब अनुसार ईसा मसीह सिल्क रूट से भारत आए थे और यह आश्रम इसी तरह के सिल्क रूट पर था। उन्होंने 13 से 29 वर्ष की उम्र तक यहां रहकर बौद्घ धर्म की शिक्षा ली और निर्वाण के महत्व को समझा। यहां से शिक्षा लेकर वे जेरूसलम पहुंचे और वहां वे धर्मगुरु तथा इसराइल के मसीहा या रक्षक बन गए।
 
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द सेकंड कमिंग ऑफ क्राइस्ट : स्वामी परमहंस योगानंद की किताब 'द सेकंड कमिंग ऑफ क्राइस्ट: द रिसरेक्शन ऑफ क्राइस्ट विदिन यू' में यह दावा किया गया है कि प्रभु यीशु ने भारत में कई वर्ष बिताएं और यहां योग तथा ध्यान साधना की। इस पुस्तक में यह भी दावा किया गया है कि 13 से 30 वर्ष की अपनी उम्र के बीच ईसा मसीह ने भारतीय ज्ञान दर्शन और योग का गहन अध्ययन व अभ्यास किया। उक्त सभी शोध को लेकर 'लॉस एंजिल्स टाइम्स' में एक रिपोर्ट भी प्रकाशित हो चुकी है। 'द गार्जियन' में भी स्वामी जी की पुस्तक के संबंध में छप चुका है।
 
 
इस किताब अनुसार यीशु के जन्म के बाद उन्हें देखने बेथलेहेम पहुंचे तीन विद्वान भारतीय ही थे, जो बौद्ध थे। भारत से पहुंचे इन्हीं तीन विद्वानों ने यीशु का नाम 'ईसा' रखा था। जिसका संस्कृत में अर्थ 'भगवान' होता है। एक दूसरी मान्यता अनुसार बौद्ध मठ में उन्हें 'ईशा' नाम मिला जिसका अर्थ है, मालिक या स्वामी। हालांकि ईशा शब्द ईश्वर के लिए उपयोग में लाया जाता है। वेदों के एक उपनिषद का नाम 'ईश उपनिषद' है। 'ईश' या 'ईशान' शब्द का इस्तेमाल भगवान शंकर के लिए भी किया जाता है।
 
 
कुछ विद्वान मानते हैं कि ईसा इब्रानी शब्द येशुआ का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ है होता है मुक्तिदाता। और मसीह शब्द को हिंदी शब्दकोश के अनुसार अभिषिक्त मानते हैं, अर्थात यूनानी भाषा में खीस्तोस। इसीलिए पश्चिम में उन्हें यीशु ख्रीस्त कहा जाता है। कुछ विद्वानों अनुसार संस्कृत शब्द 'ईशस्' ही जीसस हो गया। यहूदी इसी को इशाक कहते हैं। ऐसा लिखित रिकार्ड मिलता है कि जीसस लद्दाख से चलकर, ऊंची बर्फीला पर्वतीय चोटियों को पार करके काश्‍मीर के पहलगाम नामक स्‍थान पर पहुंचें। यही पर जीसस को इसराइल के खोए हुए कबीले के लोग मिले।
 
 
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फिफ्त गॉस्पल : ये फ्रोफेसर फिदा हसनैन और देहन लैबी द्वारा लिखी गई एक किताब है जिसका जिक्र अमृता प्रीतम ने अपनी किताब 'अक्षरों की रासलीला' में विस्तार से किया है। ये किताब जीसस की जिन्दगी के उन पहलुओं की खोज करती है जिसको ईसाई जगत मानने से इन्कार कर सकता है, मसलन कुंवारी मां से जन्म और मृत्यु के बाद पुनर्जीवित हो जाने वाले चमत्कारी मसले। किताब का भी यही मानना है कि 13 से 29 वर्ष की उम्र तक ईसा भारत भ्रमण करते रहे। ऐसी मान्यता है कि उन्होंने नाथ सम्प्रदाय में भी दीक्षा ली थी। सूली के समय ईशा नाथ ने अपने प्राण समाधि में लगा दिए थे। वे समाधि में चले गए थे जिससे लोगों ने समझा कि वे मर गए। उन्हें मुर्दा समझकर कब्र में दफना दिया गया।
 
 
महाचेतना नाथ यहूदियों से बहुत नाराज थे क्योंकि ईशा उनके शिष्य थे। महाचेतना नाथ ने ध्यान द्वारा देखा कि ईशा नाथ को कब्र में बहुत तकलीफ हो रही है तो वे अपनी स्थूल काया को हिमालय में छोड़कर इसराइल पहुंचे और जीसस को कब्र से निकाला। उन्होंने ईशा को समाधि से उठाया और उनके जख्म ठीक किए और उन्हें वापस भारत ले आए। हिमालय के निचले हिस्से में उनका आश्रम था जहां ईशा नाथ ने अनेक वर्षों तक जीवित रहने के बाद पहलगाम में समाधि ले ली।
 
 
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प्रोफेसर फिदा हसनैन ने और मिस्टर होलजर कर्स्टन ने दो अन्य प्रमाण के आधार पर यह बात उठाई। पहला प्रमाट कब्रों का है। प्रो. फिदा हसनैन लिखते हैं कि उन्होंने कश्मीर में पूर्व-पश्चिम की कब्रें देखी हैं, जो इस्लामिक नियमों के विरुद्ध बनी है। कर्स्टजन ने लिखा की यूज असफ की कब्र पूर्व-पश्चिम की दिशा में है, जो यहूदियों का तरीका है।
 
दूसरा प्रमाण एक डिग्री का है यह डिक्री 1766 में लिखी गई थी। इस में यूज असफ की कब्र पर दावे की बात है। इस का भी यहूदियों से संबंध है।...एक तीसरा प्रमाण प्रो. फिदा हसनैन ने एक पख्‍तून मुखिया के साक्षात्कार का दिया है। पख्‍तून नेता मीर आलम बादशाह नकशबन्दी ने कहा था कि, 'हम यहूदियों के उस ग्रुप में से हैं जिन्होंने स्वर्गीय भोजन 'मनन सालवा' के खाने से मना करके मूसा से अवज्ञा की थी। हमने मूसा को छोड़ दिया और पूर्व की ओर चल दिए। तुर्क भी हमारे भाई हैं क्योंकि वे भी इसराइली हैं जिन्होंने मूसा की अवज्ञा की थी। कई शताब्दी पहले हम गिलगित अर चितराल के रास्ते कश्मीर आए थे। 
 
प्रो. हसनैन ने कहा कि 'ईसाइयों के स्मृति चिन्हों में एक जगह पहली शताब्दी की कुषाण सील देखकर मैं बहुत खुश हुआ, जो 'ब्रिटिश म्यूजियम, लंदन, में सुरक्षित है। इसमें एक उच्च पदस्थ शक घोड़े पर है और उसके हाथ में एक क्रास है। यह जानकर और भी हर्ष हुआ कि यह उच्च पदस्थ व्यक्ति सील पर 'आर ए' है जिसका अर्थ राजा है जो पदमी इंडो सीथियनों ने धरी थी। हाथ में क्रूस पकड़ने का अर्थ है कि यह आकृति पहली शताब्दी की एक ईसाई की है। उसकी पगड़ी और लगाम मध्य एशिया की हैं।'- (धर्मवीर भारती की पुस्तक प्रेमचंद की नीली आंखे से साभार)

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