ईसा मसीह के जन्म, जीवन, मृत्यु और पुनर्जीवित होने की घटना को लेकर विद्वानों में मतभेद रहे हैं। बाइबिल में उनके जीवन का उल्लेख कुछ और है और शोधकर्ता उनके जीवन को लेकर कुछ और ही बातें करते हैं। सच क्या है यह अभी भी शोध का विषय हो सकता है। परंतु यहां पर प्रस्तुत है, लोगों की मान्यता और शोध पर आधारित यीशु के जीवन के अनसुलझे रहस्य।
1. मान्यता है कि युशी का जन्म बेथलहम में एक गोशाला में 6 ईस्वी पूर्व हुआ था। कुछ विद्वानों के अनुसार 4 ईस्वी पूर्व हुआ था। उनकी माता का नाम मरियम और पिता का नाम यूसुफ था। यूसुफ एक बढ़ई थे और वे नाजरथ के रहने वाले थे।
2. मान्यता है कि ईसा मसीह जब 12-13 वर्ष के हुए तब उन्हें यहूदी पुजारियों से ज्ञान चर्चा करते हुए बताया गया है। ईसा मसीह खुद यहूदी ही थे। पुजारियों से चर्चा के बाद वे कहां चले गए यह कोई नहीं जानता। हालांकि यह भी कहा जाता है कि कुछ समय बाद ईसा ने यूसुफ का पेशा सीख लिया और लगभग 30 साल की उम्र तक नाजरथ में रहकर वे बढ़ई का काम करते रहे। हालांकि बाइबल में 13 से 29 वर्ष की उनकी उम्र का कोई जिक्र नहीं मिलता है।
3. पुजारियों से चर्चा के बाद उनकी असल कहानी तब प्रारंभ होती है जबकि वे 30 वर्ष की उम्र में यहून्ना (जॉन) नामक संत से बाप्तिस्मा (दीक्षा) लेते हैं और फिर वे लोगों को उपदेश देना प्रारंभ कर देते हैं। कुछ विद्वान बाइबल का हवाला देकर कहते हैं कि बप्तिस्मा ग्रहण करना 27ई. की घटना है।
4. उनके उपदेश यहूदी धर्म की मान्यताओं से भिन्न होते थे और जब वे नबूवत का दावा करते हैं तो यहूदियों के कट्टरपंथियों में इसको लेकर रोष फैल जाता है। हालांकि जनता के बीच वे लोकप्रिय हो जाते हैं। जनता यह मानने लगी थी कि यही है वो मसीहा जो हमें रोम साम्रज्य से मुक्ति दिलाएगा। उस वक्त यहूदी बहुल राज्य पर रोमन सम्राट् तिबेरियस का शासन था जिसने पिलातुस नामक एक गवर्नर नियुक्त कर रखा था जो राज्य की शासन व्यवस्था देखता था। यहूदी मानते थे कि हम राजनीतिक रूप से परतंत्र हैं और वे 4 शतब्दियों से इंतजार कर रहे थे ऐसे मसीहा का जो उन्हें इस गुलामी से मुक्त कराएगा। उनकी लोकप्रियता से कट्टरपंथी यहूदियों के साथ ही रोमनों में भी चिंता की लहर दौड़ गई थी।
5. फिर ईसा मसीह एक दिन एक 29 ई. में गधी पर सवार होकर यरुशलम पहुंचे। वहां लोगों ने उनका स्वागत खजूर की डालियां लहराकर किया और यह समझा की मसीहा आ गया है। वहां मसीही ने अपने सभी 12 शिष्यों के साथ अंतिम भोज किया और वहीं ईसा मसीह ने संकेतों में समझाया कि उनके साथ क्या होने वाला है। वहीं उन्हें दंडित करने के षड़यंत्र रचा गया। कहते हैं कि उनके एक शिष्य जुदास ने उनके साथ विश्वासघात किया, जिसके चलते उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और फिर यहूदियों की महासभा में उनको इसलिए प्राणदंड का आदेश दिया गया क्योंकि वे ईश्वर का पुत्र होने का दावा करते थे। रोमन साम्राज्य के गवर्नर पिलातुस ने दबाव वश यहूदियों के इस आदेश को मान लिया और राज्य में किसी प्रकार का कोई विद्रोह न भड़के इसके लिए उन्होंने ईसा को क्रूस पर लटाकाने का आदेश दे दिया।
6. मान्यता है कि प्रभु यीशु पर कुछ आरोप लगे थे। सबसे बड़ा आरोप यह था कि वह खुद को मसीहा और ईश्वर का पुत्र कहते थे। अर्थात वे नबूवत का दावा करते थे। यहूदियों के धर्मगुरुओं को यह अच्छा नहीं लगा और उन्होंने इसकी शिकायत रोमन गवर्नर पिलातुस से की। एक आरोप यह था कि उन्होंने रोमन कलेक्टरों के साथ बुरा व्यवहार किया था। ईसाया की बुक ओल्ड टेस्टामेंट के अनुसार कहते हैं कि येशु जब गधे के बच्चे पर बैठकर आते हैं येरुशलम में तो खजूर की डालियां उठाकर लोग उनका स्वागत किया जाता हैं, जो यह मान रहे थे कि यह बनी इस्राइल के तामाम दुश्मनों को हरा देगा। फिर यीशु जाते हैं टेम्पल मांउट के ऊपर और वे देखते हैं कि टेम्पल के जो आउटर कोटयार्ड है उसके अंदर रोमन टैक्स कलेक्टर बैठे हैं, मनी चेंजरर्स बैठे हैं और वहां पर हर तरह का करोबार हो रहा है। यह देखकर यीशु को बहुत दु:ख होता है कि टेम्पल (पवित्र मंदिर) में इस तरह का कार्य हो रहा है तो वह अपना कबरबंध निकालकर उससे उन लोगों को मार-मार कर उन्हें वहां से निकाल देते हैं।
7. हालांकि रोमनों के गवर्नर पिलातुस को यीशु में कोई खोट नहीं नजर आई और उन्होंने इतना बड़ा अपराध नहीं किया था जिसके लिए उन्हें प्राणदंड दिया जाए। फिर भी यहूदियों के दाबव में रोमी टुकड़ी के सिपाहियों और उनके सूबेदारों तथा यहूदियों के मन्दिर के पहरेदारों ने यीशु को बंदी बना लिया। वे उसे लेकर अंत में पिलातुस के पास लाए।
8. शुक्रवार के दिन यहूदियों के दबाव के चलते पिलातुस ने यीशु को कोड़े लगवाए। सिपाहियों कंटीली टहनियों को मोड़ कर एक मुकुट बनाया और उसके सिर पर रख दिया। फिर उन्हें एक बड़ा सा क्रूस दिया गया जिसे लेकर उन्हें उस स्थान पर जाना था जहां सूली दी जाती है। इसे गुलगुता (खोपड़ी का स्थान) कहा जाता था। संपूर्ण रास्ते में उन्हें कोड़े मारे गए और अंत में वे वहां पहुंचे और सभी के सामने दो लोगों के साथ शुक्रवार को सूली पर लटका दिया। यीशु के क्रूस के पास उसकी मां, मौसी क्लोपास की पत्नी मरियम, और मरियम मगदलिनी खड़ी थी। 33 साल की उम्र में उन्हें सूली पर लटकाया गया था।
9. कहते हैं कि शनिवार को ईसा मसीह को सूली पर से उतारने के बाद उनका एक अनुयायी शव को ले गया और उसने शव को एक गुफा में रख दिया गया था। उस गुफा के आगे एक पत्थर लगा दिया गया था। वह गुफा और पत्थर आज भी मौजूद है। इसे खाली कब्र कहा जाता है। बाद में उनके शव को विधिवत रूप से दूसरी ओर दफनाया गया।
10. रविवार के दिन सिर्फ एक स्त्री (मेरी मेग्दलेन) ने उन्हें उनकी कब्र के पास जीवित देखा। जीवित देखे जाने की इस घटना को 'ईस्टर' के रूप में मनाया जाता है। रविवार की सुबह जब अन्धेरा था तब मरियम मगदलिनी कब्र पर आई और उसने देखा कि कब्र से पत्थर हटा हुआ है। फिर वह शमौन पतरस और उस दूसरे शिष्य के पास पहुंची और उसने कहा कि वे कब्र से यीशु की देह को निकाल कर ले गए। सभी वहां पहुंचे और उन्होंने देखा की कफन के कपड़े पड़े हैं। सभी ने देखा वहां यीशु नहीं थे। तब सभी शिष्य चले गए, लेकिन मरियम मगदलिनी वहीं रही। रोती बिलखती मगदलिनी ने कब्र में फिर से अंदर देखा जहां यीशु का शव रखा था वहां उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए, दो स्वर्गदूत, एक सिरहाने और दूसरा पैताने, बैठे देखे। स्वर्गदूत ने उससे पूछा, तू क्यों विलाप कर रही है? तब मगदलिनी ने कहा कि वे मेरे प्रभु को उठा ले गए हैं। यह बोलकर जैसी ही वह मुड़ी तो उसने देखा कि वहां यीशु खड़े हैं। यीशु ने मगदलिनी से कहा मैं अपने परमपिता के पास जा रहा हूं और तु मेरे भाइयों के पास जा। मरियम मग्दलिनी यह कहती हुई शिष्यों के पास आई और उसने कहा कि मैंने प्रभु को देखा है।...ऐसा भी कहा जाता है कि यीशु ने कुछ शिष्यों को भी दर्शन दिए।- बाइबल यूहन्ना 20
11. बाइबल की मान्यता अनुसार ईसा, यह साबित करने के लिए कि वे सचमुच मृतकों में से जी उठे हैं, प्रेरितों को समझाने का कार्य पूर्ण करने और अपनी कलीसिया की स्थापना करने के लिए, 40 दिनों तक इस दुनिया में रहे। इसके बाद वे प्रेरितों को जैतून पहाड़ पर ले गए और अपने हाथ उठाकर उन्हें आशीर्वाद देते हुए स्वर्ग की ओर उड़ते चले गए, जब तक कि एक बादल ने उन्हें नहीं ढंक लिया। तब दो स्वर्गदूत दिखाई दिए और उनसे कहा, 'यही येसु, जिसे तुम अपने बीच से स्वर्ग की ओर जाते देख रहे हो फिर आएंगे, जैसे तुमने उस स्वर्ग की ओर जाते देखा है। तब वह समस्त मानवों का न्याय करेगा।'
12. 33 की उम्र के बाद यीशु फिर कभी यहूदी राज्य में नजर नहीं आए, परंतु कई शोधकर्ताकों का मानना है कि वे भारत आ गए थे और वहां पर वे लगभग 100 वर्ष की उम्र तक जीवित रहने के बाद उनका देहांत हो गया था। कश्मीर के श्रीनगर के रौजाबल में उनकी कब्र होने का दावा किया जाता है। बहुत से लोग दावा करते हैं कि वे क्रॉस पर चढ़े जरूर थे लेकिन उनकी मौत नहीं हुई थी। अहमदिया संप्रदाय मिर्जा गुलाम अहमद का भी यही मानना था कि इसा मसीह ने अपने जीवन का शेष भाग भारत के कश्मीर में ही गुजारा था। कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि भारत के कश्मीर में जिस बौद्ध मठ में उन्होंने 13 से 29 वर्ष की उम्र में शिक्षा ग्रहण की थी उसी मठ में पुन: लौटकर ईसा ने अपना संपूर्ण जीवन वहीं बिताया। लोगों का यह भी मानना है कि सन् 80 ई. में हुए प्रसिद्ध बौद्ध सम्मेलन में ईसा मसीह ने भाग लिया था। एक रूसी अन्वेषक निकोलस नोतोविच ने भारत में कुछ वर्ष रहकर प्राचीन हेमिस बौद्ध आश्रम में रखी पुस्तक 'द लाइफ ऑफ संत ईसा' पर आधारित फ्रेंच भाषा में 'द अननोन लाइफ ऑफ जीजस क्राइस्ट' नामक पुस्तक लिखी है। इसमें ईसा मसीह के भारत भ्रमण के बारे में बहुत कुछ लिखा हुआ है।