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क्रिसमस पर्व का रोचक इतिहास

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-योगेशचन्द्र शर्म
आज विश्व के लगभग सौ देशों में क्रिसमस का त्योहार बड़े उल्लास और उत्साह के साथ मनाया जाता है। अनेक देशों में इस दिन राजकीय अवकाश घोषित किया जाता है तथा सभी ईसाईजन बड़े आमोद-प्रमोद और तरह-तरह के पकवानों के साथ उत्सव का आयोजन करते हैं!

इस मंजिल तक पहुँचने में इस पर्व को लंबा समय लगा है और उसे अनेक बाधाओं से जूझना पड़ा है। पिछली लगभग डेढ़ शताब्दी से ही क्रिसमस का पर्व अपने वर्तमान रूप में निर्विघ्न आयोजित होने लगा है।

सामान्यतः 25 दिसंबर को ईसा मसीह का जन्मदिवस माना जाता है और उसी रूप में क्रिसमस का आयोजन होता है परंतु प्रारंभ में स्वयं धर्माधिकारी भी इस रूप में इस दिन को मान्यता देने के लिए तैयार नहीं थे। यह वास्तव में रोमन जाति के एक त्योहार का दिन था, जिसमें सूर्यदेवता की आराधना की जाती थी। यह माना जाता था कि इसी दिन सूर्य का जन्म हुआ।

उन दिनों सूर्य उपासना रोमन सम्राटों का राजकीय धर्म हुआ करता था। बाद में जब ईसाई धर्म का प्रचार हुआ तो कुछ लोग ईसा को सूर्य का अवतार मानकर इसी दिन उनका भी पूजन करने लगे मगर इसे उन दिनों मान्यता नहीं मिल पाई। प्रारंभ में तो ईसाइयों में इस प्रकार के किसी पर्व का सार्वजनिक आयोजन होता ही नहीं था।

चौथी शताब्दी में उपासना पद्धति पर चर्चा शुरू हुई और पुरानी लिखित सामग्री के आधार पर उसे तैयार किया गया। 360 ईस्वी के आसपास रोम के एक चर्च में ईसा मसीह के जन्मदिवस पर प्रथम समारोह आयोजित किया गया, जिसमें स्वयं पोप ने भी भाग लिया मगर इसके बाद भी समारोह की तारीख के बारे में मतभेद बने रहे।

यहूदी धर्मावलंबी गड़रियों में प्राचीनकाल से ही 8 दिवसीय बसंतकालीन उत्सव मनाने की परंपरा थी। ईसाई धर्म के प्रचार के बाद इस उत्सव में गड़रिए अपने जानवरों के पहले बच्चे की ईसा के नाम पर बलि देने लगे और उन्हीं के नाम पर भोज का आयोजन करने लगे मगर यह समारोह केवल गड़रियों तक सीमित था।

उन दिनों कुछ अन्य समारोह भी आयोजित किए जाते थे, जिनकी अवधि 30 नवंबर से 2 फरवरी के बीच में होती थी। जैसे नोर्समेन जाति का यूल पर्व और रोमन लोगों का सेटरनोलिया पर्व, जिसमें नौकरों को मालिक के रूप में आचरण करने की पूरी छूट होती थी। इन उत्सवों का ईसाई धर्म से उस समय तक कोई संबंध नहीं था।

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तीसरी शताब्दी में ईसा मसीह के जन्मदिन का समारोह करने पर गंभीरता से विचार किया जाने लगा मगर अधिकांश धर्माधिकारियों ने उस समय उस चर्चा में भाग लेने से ही मना कर दिया। फिर भी ईसाई धर्मावलंबियों में विचार-विमर्श हुआ और यह तय किया गया कि बसंत ऋतु का ही कोई दिन इस समारोह के लिए तय किया जाए।

तद्नुसार इसके लिए पहले 28 मार्च और फिर 19 अप्रैल के दिन निर्धारित किए गए। बाद में इसे भी बदलकर 20 मई कर दिया गया। इस संदर्भ में 8 और 18 नवंबर की तारीखों के भी प्रस्ताव आए।

लंबी बहस और विचार-विमर्श के बाद चौथी शताब्दी में रोमन चर्च तथा सरकार ने संयुक्त रूप से 25 दिसंबर को ईसा मसीह का जन्मदिवस घोषित कर दिया। इसके बावजूद इसे प्रचलन में आने में लंबा समय लगा। इससे पूर्व मनाए जाने वाले अन्य जातियों के उत्सव इनके साथ घुले-मिले रहे और बाद में भी उनके कुछ अंश क्रिसमस के पर्व में स्थायी रूप से जुड़ गए। ईसा की जन्मभूमि यरुशलम में इस तारीख को पाँचवीं शताब्दी के मध्य में स्वीकार किया गया।

इसके बाद भी क्रिसमस दिवस की यात्रा सहज नहीं रही। विरोध और अंतर्विरोध चलते रहे। 13वीं शताब्दी में जब प्रोटस्टेंट आंदोलन शुरू हुआ तो इस पर्व पर पुनः आलोचनात्मक दृष्टि डाली गई और यह महसूस किया गया कि उस पर पुराने पैगन धर्म का काफी प्रभाव शेष है। इसलिए क्रिसमस केरोल जैसे भक्ति गीतों के गाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया और 25 दिसंबर 1644 को इंग्लैंड में एक नया कानून बना, जिसके अंतर्गत 25 दिसंबर को उपवास दिवस घोषित कर दिया गया।

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क्रिसमस विरोधी यह आंदोलन अन्य देशों में भी फैला। अमेरिका में भी इसका प्रभाव हुआ। बोस्टन में तो 1690 में क्रिसमस के त्योहार को प्रतिबंधित ही कर दिया गया। 1836 में अमेरिका में क्रिसमस को कानूनी मान्यता मिली और 25 दिसंबर को सार्वजनिक अवकाश घोषित किया गया। इससे विश्व के अन्य देशों में भी इस पर्व को बल मिला।

योरप के विभिन्न भागों में हँसी-खुशी के विभिन्न अवसरों पर वृक्षों को सजाने की प्राचीन परंपरा थी। जर्मनी में 24 दिसंबर को एक पर्व मनाया जाता था और उसी दिन एक रहस्यात्मक नाटक भी खेला जाता था- 'अदन का वृक्ष'। संभव है इन परंपराओं ने क्रिसमस वृक्ष की विचारधारा को जन्म दिया हो।

इस विचारधारा के साथ बाद में अनेक दंतकथाएँ भी जुड़ गईं। 1821 में इंग्लैंड की महारानी ने एक 'क्रिसमस वृक्ष' बनवाकर बच्चों के साथ समारोह का आनंद उठाया था। उन्होंने ही इस वृक्ष में एक देव प्रतिमा रखने की परंपरा को जन्म दिया। बधाई के लिएपहला क्रिसमस कार्ड लंदन में 1844 में तैयार हुआ और उसके बाद क्रिसमस कार्ड देने की प्रथा 1870 तक संपूर्ण विश्व में फैल गई।

जहाँ तक सान्ता क्लॉज का संबंध है, इसकी परंपरा क्रिसमस के साथ काफी बाद में जुड़ी। मध्ययुग में संत निकोलस (जन्म 340 ईस्वी) का जन्म दिवस 6 दिसंबर को मनाया जाता था और यह मान्यता थी कि इस रात्रि को संत निकोलस बच्चों के लिए तरह-तरह के उपहार लेकर आते हैं। यही संत निकोलस अमेरिकी बच्चों के लिए 'सान्ता क्लॉज' बन गए और वहाँ से यह नाम संपूर्ण विश्व में लोकप्रिय हो गया।

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