देवाधिदेव महादेव शिवशंकर की नगरी काशी जिसे वाराणसी और बनारस के नाम से भी जाना जाता है। वाराणसी में 84 घाट गंगा तट पर स्थापित हैं, जिनमें से अधिकांश धार्मिक अनुष्ठान, पूजा-पाठ के लिए उपयोग किए जाते हैं। लेकिन, यहां का मणिकर्णिका घाट अंत्येष्टि के लिए प्रसिद्ध है। इसे महाश्मशान घाट भी कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि यहां जिस व्यक्ति का अंतिम संस्कार होता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।
मणिकर्णिका घाट के बारे में कहा जाता है कि यहां स्थित श्मशान घाट पर 24 घंटे चिताएं जलती रहती हैं। ऐसी भी कहावत है कि जिस दिन इस श्मशान घाट पर चिता नहीं जलेगी, वाराणसी के लिए वह दिन प्रलय का होगा।
इतना ही नहीं, वैश्विक महामारी कोरोना के चलते इस घाट की सैकड़ों वर्षों से चली आ रही परंपराएं भी खंडित हो गईं। इस श्मशान घाट के बारे में कहा जाता है कि यहां मशाननाथ के रूप में स्वयं महादेव विराजमान हैं, जो कि यहां आने वाली हर चिता को मोक्ष का मार्ग दिखाते हैं।
यही कारण है कि यहां चौबीसों घंटे लगातार चिताएं जलती रहती हैं। आम दिनों में अंतिम संस्कार के लिए यहां कतारें लगी रहती थीं। रोज अंतिम संस्कार की संख्या 250 से 300 होती थी, लेकिन लॉकडाउन के चलते यह संख्या 5 से 8 शव प्रतिदिन रह गई है।
देशभर से आते हैं लोग : इस घाट पर उत्तर प्रदेश ही नहीं अन्य प्रदेशों से भी शवों को मोक्ष प्राप्ति के उद्देश्य से अंतिम संस्कार के लिए लाया जाता है। इतिहास में पहला मौका है जब मणिकर्णिका घाट अंतिम संस्कार के लिए कतारें नहीं हैं। महाश्मशान में लगभग सन्नाटा पसरा हुआ है। चूंकि लॉकडाउन के चलते वाराणसी की सीमाएं सील हैं, यही कारण है कि आसपास के जनपदों से भी शवों को इस घाट पर लोग नहीं ला पा रहे हैं। जिस श्मशान में रात में भी चिताएं जलती थीं, वहां दिन में ही वीरानियां छाई हुई हैं।
...यह परंपरा भी टूटी : इतना ही नहीं इस वर्ष कोरोना के चलते सदियों से चली आ रही एक और परंपरा टूट गई। चैत्र नवरात्रि की सप्तमी की रात को धधकती चिताओं के बीच रातभर चलने वाले गणिकाओं (नगरवधुओं) के नृत्य का आयोजन भी इस वर्ष नहीं हुआ। अकबर के नौ रत्नों में से एक राजा मानसिंह ने इस शिवनगरी में इस परंपरा की शुरुआत करवाई थी। उसी समय से प्रतिवर्ष सप्तमी को पूरी रात गणिकाओं द्वारा महादेव को प्रसन्न करने के लिए जलती चिताओं के बीच नृत्य किया जाता है, जिसे देखने देश-विदेश से पर्यटक आते हैं।
फुरसत में हैं डोम राजा : इस घाट पर कभी हमेशा गर्म रहने वाली राख जिसकी भस्म लगाकर अघोरी तंत्र-मंत्र की सिद्धियां हासिल करते थे, वो भस्म रूपी शवों की राख भी इन दिनों ठंडी पड़ गई है। इस घाट के डोम राजा जिन्हें धरती का यमराज भी कहा जाता है, जो कि काफी व्यस्त रहते थे, इन दिनों फुरसत में अपने परिवार के साथ समय बिता रहे हैं।
क्या कहते हैं विद्वान : डॉ. राममनोहर लोहिया अवध विश्व विद्यालय के कुलपति आचार्य मनोज दीक्षित ने काशी की परंपराओं पर विराम लगने के मामले में कहा कि सवा सौ वर्षों से भी ज्यादा समय से इस प्रकार की महामारी नहीं देखी गई, न ही सुनी गई, जिसमें लॉकडाउन की स्थिति बनी हो। उन्होंने कहा कि हमारे शास्त्रों मे भी स्पष्ट रूप से लिखा है कि 'आपत्ति काले मर्यादा नास्ते' अर्थात जब आपत्ति काल आता है तो मर्यादा को भूलना ही होता है। क्योंकि वह समय देश हित का होता है, जिसके चलते हम अपने त्योहारों, रीति-रिवाजों, परंपराओं एवं मान्यताओं को संकुचित करते हुए राष्ट्रहित को सर्वोपरि महत्व देते हैं।
इसी तरह के काशी के विद्वान व्याकरणाचार्य दर्शनाचार्य डॉ. प्रभाकर पांडेय का मानना है कि इन आपदाओं व महामारियों के आने का प्रमुख कारण है कि जो हमें करना चाहिए वो हम नहीं कर रहे हैं और जो नहीं करना चाहिए वो कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि भौतिक सुखों के लिए महायंत्रों का प्रचुर मात्र मे उपयोग करते हैं तो प्रकृति में ऐसी स्थिति निर्मित होती है। अत: हमें भोजन, भजन व शयन के साथ ही शास्त्र विधि से जीवन जीना चाहिए।
क्या है मणिकर्णिका घाट की मान्यता : मणिकर्णिका घाट को लेकर पौराणिक मान्यता है कि माता पार्वती जी का कर्ण फूल यहां एक कुंड में गिर गया था, जिसे ढूंढने का काम भगवान शिव द्वारा किया गया। यही कारण है कि इस घाट का नाम मणिकर्णिका घाट पड़ा, वहीं दूसरी मान्यता भी है की भगवान शिव द्वारा माता पार्वती का अग्नि संस्कार यहीं किया गया। इसी घाट के पास में ही काशी की आद्या शक्तिपीठ विशालाक्षी का मंदिर है। एक अन्य कहानी देवी सती के कान की मणि गिरने की भी है।