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Special Story: कहानी ऐसे प्रवासी मजदूरों के हौसलों की जिन्हें लॉकडाउन के दर्द ने बनाया ‘आत्मनिर्भर’

जब शहरों ने नहीं दिया सहारा तो गांव में ही शुरू किया धंधा-पानी

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विकास सिंह

, शुक्रवार, 2 अप्रैल 2021 (10:00 IST)
देश कोरोना की दूसरी लहर की चपेट में है। महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब, कर्नाटक, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में कोरोना को लेकर हालात विस्फोटक होते जा रहे है। संक्रमण रोकने के लिए राज्य सरकारें एक बार फिर लॉकडाउन की ओर बढ़ने लगी है। महाराष्ट्र से लेकर छ्त्तीसगढ़ तक की सरकारों ने स्थिति नहीं सुधरने पर बड़े स्तर पर लॉकडाउन लगाने के संकेत दे दिए है।

महाराष्ट्र के कई जिलों में कोरोना संक्रमण रोकने के लिए लॉकडाउन  लगाया जा चुका है तो छत्तीसगढ़ के अधिकांश जिलों में नाइट कफर्यू और मध्यप्रदेश के 12 शहरों में रविवार का लॉकडाउन लगाया जा रहा है। लॉकडाउन की मार सबसे ज्यादा मेहनत मजदूरी का दो जून की रोटी कमाने वालों पर पड़ता है। कोरोना महामारी के ठीक एक साल बाद फिर लॉकडाउन की आहट ने लोगों को बैचेन कर दिया है। 
 
ऐसे में ‘वेबदुनिया’ फिर एक बार उन लोगों तक पहुंचा जो पिछले साल देश्व्यापी लॉकडाउन के दौरान अपना रोजगार खोने के चलते तमाम मुश्किलों को झेलते हुए अपने गांव तक पहुंचे थे। लॉकडाउन और उसके बाद पलायन के दर्द से जूझ कर निकले इन प्रवासी मजदूरों ने गांव में अपना धंधा शुरु कर दिया  है। 
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पिछले लॉकडाउन के वक्त मुंबई से वापस मध्यप्रदेश के छतरपुर के अपने गांव गौरिहार लौटे प्रवासी मजदूर लल्लनपाल ‘वेबदुनिया’ से बातचीत में कहते हैं कि 12 साल पहले घर से  काम की तलाश में बाहर निकल गया था इस दौरान चेन्नई, सूरत, फरीदाबाद, दिल्ली होते हुए चार साल पहले मुंबई पहुंचा और लॉकडाउन के समय शांताक्रूज में पेंटर का काम कर रहा था।

शादी के चंद दिनों बाद ही लॉकडाउन के चलते रोजगार खोने वाले लल्लनपाल घर का खर्चा चलाने के लिए अब गांव में चाट-समोसे का ठेला लगाना शुरू कर दिया है। वह कहते हैं कि भले ही कमाई ज्यादा नहीं हो लेकिन रोज 2-3 सौ रुपए कमा लेते हैं। भविष्य के सवाल पर लल्लन कहते हैं कि शहरों के कोरोना से बचना है तो अपने गांव का छोटा-सा धंधा भी अच्छा लगने लगता है। 
 
लल्लनपाल की ही तरह प्रवासी मजदूर पुष्पेंद्र कुमार जो लॉकडाउन से पहले पंजाब के लुधियाना जिले में ईट-भट्टों में काम करते थे, लेकिन गांव में अपने घर पर छोटी सी किराना की दुकान चला रहे हैं और परिवार का पेट पाल रहे है। 
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वहीं लॉकडाउन के दौरान मुंबई से छत्तरपुर तक का सफर पैदल और ट्रकों में लिफ्ट लेकर पूरा करने वाले दद्दूपाल अब गांव में खेती-किसानी कर रहे है। ‘वेबदुनिया’ से बातचीत में दद्दू पाल कहते हैं कि गांव लौटने के बाद खेती करने के सिवाय कोई विकल्प ही नहीं बचा था। इस साल रबी की फसल में मटर की खेती की और चार बीघा में मटर बोया था और उपर वाले की मेहरबानी से चौदह क्विंटल मटर हो गई है। बाजार में मटर का 5200 रुपए प्रति क्विंटल का भाव मिल गया वहीं साल भर खाने के लिए भी खेत से अनाज ठीकठाक मिल गया।
 
भविष्य में बाहर जाने के ‘वेबदुनिया’ के सवाल पर प्रवासी मजदूर दद्दूपाल कहते हैं पिछले बार कोरोना के चलते किसी तरह अपने गांव वापस आ पाया था इसलिए अब गांव से बाहर नहीं जाने का तय किया  है। इसके आगे वह कहते हैं कि गांव अभी भी कोरोना से सुरक्षित है जबकि शहर में अभी भी कोरोना है। 
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वहीं छतरपुर जिले के गौरिहार तहसील के रहने वाले प्रवासी मजदूर बबलू जोशी,दद्दूपाल जितने खुशकिस्मत नहीं है। गांव लौटकर बबूल जोशी ने मजदूरी के साथ-साथ बंटाई पर खेती भी की लेकिन, पहले तिलहन फसल ने घाटा दिया और अब रबी फसल ने। बबलू कहते हैं कि तेरह बीघा में चना की बुआई की थी,सिर्फ चार क्विंटल ही फसल हाथ लगी उपर से जुताई-बुआई का कर्ज भी चढ़ गया है। वह कहते हैं कि परिवार का खर्च चलाना अब गांव में रहकर नहीं हो सकता, लोगों का कर्ज भी देना है। इसलिए खलिहान उठने के बाद फिर से दिल्ली जाने की सोच रहा हूं लेकिन कोरोना के बढ़ते मामलों ने फिर चिंता में डाल दिया है।
 
एक बार फिर कोरोना के बढ़ते मामलों से प्रवासी मजदूर चिंतित तो जरुर है लेकिन अब उनके सामने रोजी रोटी जैसा विकट संकट नहीं है। एक बार फिर कोरोना के ग्राफ ने इन अप्रवासी मजदूरों को शहरों में जाने से रोक दिया है। शहर जाने की उम्मीदों पर पानी फिरता देख ये मजदूर अब अपने गांव में ही रहकर दो जून की रोटी का इंतजाम कर रहे है।
      

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